गुरुवार, 30 मई 2024

सतकर्मा

 आप जब महके चमन गए शरमा

आप जब चहके गगन गए भरमा

यूं ही हैं अनोखे आप जानते नहीं

मुझसे हुए परिचित शायद सतकर्मा

 

आपको समझूं तो उठे झूम फिजाएं

प्रकृति ले चूम इंद्रधनुष आप सजाए

एक आप अनोखी शेष नित का कर्मा

मुझसे हुए परिचित शायद सतकर्मा

 

विशिष्ट हैं घनिष्ट है प्रीति समष्टि है

जितना भी समझें गहन गूढ़ निष्ठ हैं

आपके प्रभाव में सब होते हितकर्मा

मुझसे हुए परिचित शायद सतकर्मा।

 

धीरेन्द्र सिंह

26.05.2024

21.28



सोमवार, 27 मई 2024

देह

 

राधा-कृष्ण, शिव-शक्ति की कर चर्चाएं

प्रेम का रूप गढ़ें, लक्ष्य क्या कौन बताए

यदि आध्यात्म प्यार भक्ति मार्ग जाएं

मानव बीच रहकर देह को क्यों घटाएं

 

ऐसे लोगों का मस्तिष्क अलौकिक चाह

देह से मुक्ति चाहें देह को ही नकार

वासना, कामना का सामना को हटाएं

मानव बीच रहकर देह को क्यों घटाएं

 

बहुरूपिया लेखन का बढ़ रहा है चलन

प्रेम धर्म परिभाषित सहज भाव दलन

देह मार्ग मुक्ति मार्ग सहजता से पाएं

मानव बीच रहकर देह को क्यों घटाएं

 

राधा-कृष्ण छोड़िए शिव-शक्ति भव्य

आत्मधन चाहें नकार कर क्यों द्रव्य

सहज जीवन देह आकर्षण सहज पाए

मानव बीच रहकर देह को क्यों घटाएं।

 


धीरेन्द्र सिंह

28.05.2024

09.56Q

रविवार, 26 मई 2024

प्रेम परिभाषा

 

प्रेम की फिर मिली वही परिभाषा

देना ही देना प्राप्ति की न आशा

 

कहां मिलते ऐसे जो करते ऐसा प्रेम

कब खिलते मन जो करते ऐसा मेल

क्या सही प्रेम में ही जीवन प्रत्याशा

देना ही देना प्राप्ति की न आशा

 

मन बहुत मांगे भाव बहुत कुछ चाहे

तन को क्यों भूलें अलग ही वह दाहे

दावा, क्रोध न बदला, बस अर्पण जिज्ञासा

देना ही देना प्राप्ति की न आशा

 

बोल गईं वह मुझसे सहज थी अभिव्यक्ति

मन को बता गईं पूरा होती क्या आसक्ति

प्रीति रीति अनोखी, अद्भुत, अविनाशा

देना ही देना प्राप्ति की न आशा

 

आभार प्रकट निज हृदय करे बन ज्ञानी

प्रेम डगर निर्मोही राही नहीं हैं अनुरागी

कैसे अपनी प्यास दबे प्रकृति मधुमासा

देना ही देना प्राप्ति की न आशा।

 

धीरेन्द्र सिंह

26.05.2024

10.48



गुरुवार, 23 मई 2024

रिझाना है

 हर उम्र का एक दोस्ताना है

उम्र दर उम्र वही आशिकाना है

कुछ गंभीरता लिए समझदारी भी

जिंदगी को भी तो रिझाना है


तथ्य हैं, कथ्य हैं, सत्य-असत्य है 

लक्ष्य है, लाभ है, पथ्य-नेपथ्य है

दिनचर्या पाठ्यक्रम सा पढ़ जाना है

जिंदगी को भी तो रिझाना है


सहजता अक्सर होती है विवशता

कर्म फेंक रहे भाग्य है कम फंसता

जिजीविषा का बस एक तराना है

जिंदगी को भी तो रिझाना है


देखिए न उम्र का मूक सौंदर्य

कहिए न चाह से करे सहचर्य

मोहित, मुग्धित, मधुर गुनगुनाना है

जिंदगी को भी तो रिझाना है।


धीरेन्द्र सिंह

22.05.2024

21.22



मंगलवार, 21 मई 2024

दहक

 तुम्हें इस कदर हम देखा किए हैं

कि निगाहों को कोई भी जंचता नहीं

खूबी जो तुम में बुलाती हमें ही

तुम्हारे नयन प्यार हंसता नहीं


बहुत जानती हो तराना मोहबत के

एहसासों में यूं कोई बसता नहीं

हुनर प्रीत का बनाती हो मौलिक

किसी और में यह दिखता नहीं


एक चाह का उछाल संबोधन तुम

आप बोलूं तो प्यार झलकता नहीं

एक आदर और सम्मान समर्पित

बिन इसके प्यार खुल हंसता नही 


प्यार तो विनम्रता की उन्मादी हिलोर

बिना तट के प्यार बहकता नही 

लहरों की ऊर्जा हो स्पंदित तुम में

जब तक न बहको दहकता नहीं।


धीरेन्द्र सिंह

21.05.2024

22.30



पलकों की घूंघट

 

पलकों की घूंघट में छिपता है प्यार

प्यार में सिमटकर खिलता है संसार

 

एक हृदय धड़का हो आकर्षित तड़पा

एक खिंचाव अनजान विकसित कड़का

छन्न हुई अनुभूतियां लेकर वह खुमार

प्यार में सिमटकर खिलता है संसार

 

अनजाने प्राण में लगे समाहित प्राण

अपरिचित व्यक्तित्व चावल कहां मांड

दो हृदय एक लगें भीनी सी झंकार

प्यार में सिमटकर खिलता है संसार

 

मानवीय समाज की हैं विभिन्न रीतियाँ

प्यार जताने की नियंत्रित हैं नीतियां

प्यार तो उन्मुक्त नकारे विभक्ति द्वार

प्यार में सिमटकर खिलता है संसार

 

पूछिए दिलतार से भंजित प्यार वेदनाएं

कब छूटा कैसे टूटा भला कोई क्यों बताए

टीस, तड़प, नैतिकता खड़ग की टंकार

प्यार में सिमटकर खिलता है संसार।

 

धीरेन्द्र सिंह

21.05.2024

15.29



सोमवार, 20 मई 2024

साहित्य

 क्यों उठा लेते हैं विगत साहित्य

क्या है यह रचनाकार आतिथ्य

एक समय था पुस्तकें ही थीं

और था प्राध्यापक व्यक्तित्व


जो कहा साहित्य क्या सत्य वही

रचनाएं लिखी और कितनी बही

नाम लोकप्रिय क्या साहित्य सतीत्व

शेष रचनाकारों के गए कहां कृत्य


सोशल मीडिया में अनोखी अनुगूंज

हे विगत चितेरे, वर्तमान को बूझ

विगत से मोहित, भ्रमित साहित्य

वर्तमान में अनभिज्ञ, नव कृतित्व


पहले से पारदर्शी है, समय यह

सूचनाओं के, अंबार संग गह

आत्मशक्ति, विचारशक्ति भवितव्य

वसुधैव की सोच, छोड़ निजत्व।


धीरेन्द्र सिंह

20.05.2024

14.22



रविवार, 19 मई 2024

चिंतन

 

जो जितना पढ़ेगा

वह उतना भिड़ेगा

अंधकार दूर कर

ज्योति वह तिरेगा

 

पुस्तक मात्र नहीं

दृष्टि जो मढ़ेगा

पुस्तक से बेहतर

विचार वह नढ़ेगा

 

धार्मिक पुस्तकें विशिष्ट

चिंतन पढ़ फहरेगा

शेष जीवन दिखलाता

समझा वही बढ़ेगा

 

सीख नहीं क्षोभ

दर्द ऐसे कहरेगा

भाषा, चिंतन, अभिव्यक्ति

भविष्य को तरेगा।

 

धीरेन्द्र सिंह

19.05.2024

13.53



शनिवार, 18 मई 2024

काव्य रचा शब्द

 

हर शब्द कहा शहद भरा छत्ता है

स्वाद न मिले तो फर्क अलबत्ता है

 

शब्द के ऊपर रहें मोटी बतियां

शब्द भीतर भावपूरित नदियां

रचना भीतर पान चटक कत्था है

स्वाद न मिले तो फर्क अलबत्ता है

 

कोई भी रचना न शब्द का पिरामिड

रचना लचीली न भाव रखे अडिग

रचनाकार अपनी धुन का सत्ता है

स्वाद न मिले तो फर्क अलबत्ता है

 

भावनाओं के जमघट में शब्द साधना

कामनाओं के पनघट में वक़्त बांधना

लेखन योगभाव टहनी उगा पत्ता है


स्वाद न मिले तो फर्क अलबत्ता है।

 

धीरेन्द्र सिंह

18.05.2024

21.00

शुक्रवार, 17 मई 2024

आप

 किसी सड़क पर रोज आप निकलती होंगी

किसी तरह ट्रैफिक लड़खड़ाती चलती होगी

आपको मालूम नहीं आपकी हर अदाएं

हवाएं छूकर हर शख्स दिल धड़कती होंगी


आप मासूम हैं आपको मालूम भी नहीं

नज़र एक बार देख कर मचलती होंगी

सौम्य, शालीन अब मिलते ही कहाँ हैं

आहें तड़पती आप पर ही ढलती होंगी


एक उम्र जीने का हुनर आपने बांटा

एक अदा महफिलों सी ठहरती होगी

हर नज़र यूं भी आप तक न पहुंचे

संवेदनाएं जीवित वही लहरती होंगी


सौंदर्य उम्र के खूंटे पर, बंधा कब है

जिंदगी प्यार में यूं ही उभरती होगी

आपसे प्यार हो चुका कब से, उम्दा

आपको मालूम भी नहीं, डरती होंगी।


धीरेन्द्र सिंह

17.05.2024

17.21



गुरुवार, 16 मई 2024

मन

 

मन जब करता मन से बातें


चूर-चूर हों दूर सब रिश्ते-नाते

 

हृदय डोर ही परिणय का छोर

सामाजिक बंधन परिवार अंजोर

समाज में सही सामाजिक बातें

चूर-चूर हों दूर सब रिश्ते-नाते

 

आदिकाल से यह मन चंचल

मन चाहे कोई मनचाहा संबल

मन रम जाए सुधि रचि गाते

चूर-चूर हों दूर सब रिश्ते-नाते

 

मानव इतिहास में हृदय नर्तन

जैसा तब था अब भी संवर्धन

प्यार कभी बदला कहां यह बातें

चूर-चूर हों दूर सब रिश्ते-नाते।

 

धीरेन्द्र सिंह

16.05.2024

18.19

बुधवार, 15 मई 2024

धुन

 

मेरी तन्हाइयों में यूं जो गुनगुनाओगी

द्वार हृदय अपने खुद उलझ जाओगी

 

सूर्य की किरणों सा पहुंच जाता हूँ

तपिश सा राग में घुल जाता हूँ

रागिनी चुन-चुन हो मगन सुनाओगी

द्वार हृदय अपने खुद उलझ जाओगी



कृषक की आस बन मेघ सा निहारूँ

तृषित नयनों से जलसृष्टि पुकारूं

मेघराग में आच्छादित छा जाओगी

हृदय द्वार अपने खुद उलझ जाओगी

 

संभलना भावनाओं की पुकारती डगर

खंगालना शब्दों की भोली सी नज़र

कहां क्या दांव ठाँव तुम समझ पाओगी

हृदय द्वार अपने खुद उलझ जाओगी

 

गीतों में ढली तुम हो एक श्रेष्ठ काव्य

प्रतीकों में अंतस रागिनियों का निभाव

मैं धुन हूँ बिना जिसके क्या गा पाओगी

हृदय द्वार अपने खुद उलझ जाओगी।

 

धीरेन्द्र सिंह

15.05.2024

22.34

मंगलवार, 14 मई 2024

शोषण

 वाह

आह

ऊँह

नाह


चाह

आह

दाह

बाहं


राह

छाहँ

लांघ

माह


डाह

स्वाह

आह

थाह।


धीरेन्द्र सिंह

14.05.2024

21.12


सोमवार, 13 मई 2024

खुमारी या विरह नाद


 

समर्पित प्रेम में होता यह विषय विवाद

मीरा सी खुमारी या राधा सा विरह नाद

 

अंतस हिलोर मारे अभिलाषाओं की शुमारी

गहन तरंग उठे असीम चेतना की खुमारी

प्रणय पुष्प सा फले, फूले, महके निर्विवाद

मीरा सी खुमारी या राधा सा विरह नाद

 

एक ही धूरी पर प्रणय की अनंत शाखाएं

कुछ मीरा कहें कुछ संग राधा गुनगुनाएं

क्या प्रेम मात्र एक छात्र एक पाठ संवाद

मीरा सी खुमारी या राधा सा विरह नाद

 

किस तरफ शौर्य का गुंजित है अभिमान

बिना साहस प्रेम का हो सके ना ज्ञान

कान्हा की बांसुरी तो सुदर्शन चक्र निनाद

मीरा सी खुमारी या राधा सा विरह नाद।

 

धीरेन्द्र सिंह

13.05.2024

16.39

रविवार, 12 मई 2024

प्यार आजन्म

 

प्यार आजन्म, बस एक मधुर गुंजन है

बहुत कम लोगों का, इससे समंजन है


एक छुवन, एक कंपन, एक जुगलबंदी

प्यार की हदबंदी का क्या यही अंजन है

मां, बहन, भ्राता आदि लगें औपचारिकताएं

प्रेमी-प्रेमिका भाव नित्य का अभिनंदन है


हंसी-मजाक में देते निमंत्रण तपाक से

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या कि क्रंदन है

वासना मुखरित हो रही विभिन्न रूप में

क्या प्यार की अनुभूतियों का भंजन है


लग रहा देख सोशल मीडिया का लेखन

प्यार भ्रमित, दूषित का, बढ़ रहा निबंधन है

प्यार पोषित, सिंचित, पल्लवित, पुष्पित

झटपट, चटपट का बढ़ रहा जगवंदन है


मन को छुए बिना तन की ओर धाएं

संवाद साधनों में यह रुचिकर व्यंजन है

प्यार उपेक्षित शालीन सा पड़ा है कहीं

ललक छलक ढलक जैसे कि मंजन है।


धीरेन्द्र सिंह

12.05.2024

17.39


गुरुवार, 9 मई 2024

स्वेद क्रांति

 


पसीने के बूंदों संग भाल जगमगाता है

आपके श्रम में प्यार संग यूं निभाता है

 

अपने भीतर ही उपजता है अपना प्यार

हृदय के कोने में छुपा रहता है वह यार

कितना भी व्यस्त रहें बूंद झिलमिलाता है

आपके श्रम में प्यार संग यूं निभाता है

 

स्वेद की बूंद की अपनी विशिष्ट महत्ता

श्रमिक के सिवा क्या पसीना बिन इयत्ता

तेज हो सांस तो स्वेद संतुलन बनाता है

आपके श्रम में प्यार संग यूं निभाता है

 

स्वस्थ साफ देह स्वेद इत्र भी शरमाए

कोई पहना वस्त्र नासिका की भरमाए

स्वेद क्रांति पर पाठ कहां कौन पढ़ाता है

आपके श्रम में प्यार संग यूं निभाता है

 

पसीने से होती है जग में नई क्रांतियां

पसीना में भी श्रृंगार की बसी भ्रांतियां

पसीने से जुड़ता वह पूर्ण जुड़ जाता है

आपके श्रम में प्यार संग यूं निभाता है।

 

धीरेन्द्र सिंह

11.05.2024

12.08