कलरव कुल्हड़ मन भर-भर छलकाए
चाहत की अंगीठी लौ संग इतराए
चित्त की चंचलता में अदाओं का तोरण
कामनाएं कसमसाएं प्रथाओं का पोषण
मन द्वार नित रंगोली नई बनाए
चाहत की अंगीठी लौ संग इतराए
कलरव कुल्हड़ जब करता है बड़बड़
भाप निकलती है हो जैसे कि गड़बड़
एक तपिश एक मिठास दिन बनाए
चाहत की अंगीठी लौ संग इतराए
एक लहर चांदनी सी लयबद्ध थिरकन
कोई कसर ना छोड़े दे मीठी सी तड़पन
कसक हँसत जपत नत प्रीत पगुराए
चाहत की अंगीठी लौ संग इतराए।
धीरेन्द्र सिंह
15.09.2024
09.19