मैं
यह जानता हूँ
सच्चा प्रायः दंडित होता है
मैं मानता हूँ
हो सशक्त आधार खंडित होता है,
मैं
यह देखता हूँ
कर्मठ प्रायः लक्षित होता है
मैं जानता हूँ
उपद्रवी हमेशा दक्षित होता है
सत्य
क्या हमेशा परिभाषित होता है
सबूत
क्या हमेशा सुवासित होता है
मैं
जानता हूँ
प्रजातंत्र की घुमावदार गलियां
मैं
मानता हूँ
विधि की असंख्य हैं नलियां
तब
सत्य कैसे जान पाएंगे
जो देखा
वही मान जाएंगे
क्या शकुनि व्यक्तित्व खत्म हो गया ?