ना कभी वक़्त-बेवक्त समय को ललकारा
अवधि की कौन सोचे लगे हर पल प्यारा
कभी कुछ खनक उठती है जानी-पहचानी
ललक धक लपक उठती जाग जिंदगानी
किसी कहानी ने अब तक ना है पुकारा
अवधि की कौन सोचे लगे हर पल प्यारा
बांध कविताओं में कुछ भाव कुछ क्षणिकाएं
दोबारा फिर ना पढ़ें गति आगे बढ़ते जाए
पलटकर देखने पर समय ने है कब संवारा
अवधि की कौन सोचे लगे हर पल प्यारा
सहज चलने सरल ढलने का चलन स्वीकार
किसी की खुशियां सर्वस्व ना कोई अधिकार
कहां कब मुड़ सका जिसे दिल ने है नकारा
अवधि की कौन सोचे लगे हर पल प्यारा।
धीरेन्द्र सिंह
09.09.2024
28.25