ऐ सखी ओ सखा प्रीत काहे मन बसा
आप तो लिखते नहीं क्या मैं हूँ फंसा
इतना हूँ जानता जो जिया मन लिखा
बेमन है जो लिखे खुद कहां पाते जीया
जीतना कहां किसे मीठे ऐंठन में कसा
आप तो लिखते नहीं क्या मैं हूँ फंसा
नित्य लेखन प्रक्रिया हुई ना ऐसी क्रिया
कथ्य की वाचालता भाव उभरी कहे प्रिया
मनोभाव आपके भी दर्शाते क्या ऐसी दशा
आप तो लिखते नहीं क्या मैं हूँ फंसा
असभ्य ना अशिष्ट समझें शब्द यहां फंसा
झूमने लगे क्यों कोई बिन वजह बिन नशा
अपनी गोल से पूछता बेवजह क्यों हंसा
आप तो लिखते नहीं क्या मैं हूँ फंसा।
धीरेन्द्र सिंह
29.09.2024
14.09