मुक्त कितना हो सका है मन
भाव कितने रच रहे गहन
आत्मा उन्मुक्त एक विहंग
ज़िन्दगी क्रमशः बने दहन
नित नए भ्रम पुकारे उपलब्धियां
सोच पुलकित और मन मगन
जीव की जीवंतता अनबूझी
सूक्ष्म मन अब लगे पैरहन
देख भौतिक आकर्षण विचलन
फिसलन खींच रही पल हरदम
अनियंत्रित दौड़ ले बैसाखियां
लक्ष्य का अनुराग स्वार्थी मन
प्रकृति है दर्शा रही उन्नयन राहें
मति भ्रमित तिरस्कृत उपवन
अब कली, भ्रमर, पराग, गंध पुष्प
साध्य नहीं काव्य की लगन
जीव, जीवन, आत्मन, मनन
अंतरात्मा से प्रीत घटा घनन
स्नेह, नेह, ध्येय की स्पष्टता
उन्नयन एकात्मिक हो तपन।
धीरेन्द्र सिंह
भाव कितने रच रहे गहन
आत्मा उन्मुक्त एक विहंग
ज़िन्दगी क्रमशः बने दहन
नित नए भ्रम पुकारे उपलब्धियां
सोच पुलकित और मन मगन
जीव की जीवंतता अनबूझी
सूक्ष्म मन अब लगे पैरहन
देख भौतिक आकर्षण विचलन
फिसलन खींच रही पल हरदम
अनियंत्रित दौड़ ले बैसाखियां
लक्ष्य का अनुराग स्वार्थी मन
प्रकृति है दर्शा रही उन्नयन राहें
मति भ्रमित तिरस्कृत उपवन
अब कली, भ्रमर, पराग, गंध पुष्प
साध्य नहीं काव्य की लगन
जीव, जीवन, आत्मन, मनन
अंतरात्मा से प्रीत घटा घनन
स्नेह, नेह, ध्येय की स्पष्टता
उन्नयन एकात्मिक हो तपन।
धीरेन्द्र सिंह