गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

व्योम को नहलाएं

 आ समंदर बाजुओं में, व्योम ओर धाएं

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


तृषित वहीं है व्योम, छल का है क्षोभ

साथ चलना उन्मत्त उड़ना, मेघ का लोभ

सागर में मेघ को, पुनः सकल मिलाएं

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


धीर है, गंभीर है, विश्वास भरा तीर है

दृष्टि थम जाए जहां, ऐसा वह प्राचीर है

बदलियों की चंचलता, आसमान भरमाए

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


सूर्य की तपिश में व्योम की कशिश

वाष्प से बदली, व्योम में ही रचित

व्योम ने तराशा उसे, बिन बोले बरस जाए

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


मेघ, बदली, बादल एक, हैं श्वेत-श्यामल

जब धरा की प्रीत जागे, गरजें-बरसे पागल

ठगा हतप्रभ व्योम का दग्ध मन कुम्हलाए

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं।


धीरेन्द्र सिंह


04.04.2024

21.14