कभी तुम सोचती राहों से गुजरी हो
कभी क्या वादे कर के मुक़री हो
प्रणय के दौर के बदलते तौर कई
क्या कभी तुम अपना तौर बदली हो
अंजन रचित नयन नित बन खंजन
हृदय के द्वार पर अलख निरंजन
क्या इन स्पंदनों में कभी बिखरी हो
क्या कभी तुम अपना तौर बदली हो
समर्पित प्यार ही निभाव का अनुस्वार
बारहखड़ी बोलो नहीं क्या इसका द्वार
व्याकरण प्यार का क्या सुर डफली हो
क्या कभी तुम अपना तौर बदली हो
समझ ना आए समझाने पर यह प्यार
डूबकर दबदबाना और प्रदर्शित प्रतिकार
समझ में तुम भी क्या जैसे अर्दली हो
क्या कभी तुम अपना तौर बदली हो।
धीरेन्द्र सिंह
26.11.2023
22.22