संतों की हत्या कर रही मुझसे बात
निहत्थों की घेर हत्या है कोई घात
एक हवा कहीं बिगड़ी बेखौफ हो
चुप रहना जीवंतता की न सौगात
निहत्थों की हत्या सोते का गला रेत
दोनों में मरे संत क्या कर रही है रात
कई पड़ रही हैं सलवटें बोल इंसानियत
क्या लुप्त की कगार पर आपसी नात
कुछ इसके विरोध में कुछ हैं बस मौन
कौन कहे देश में कब, कहां भीतरघात
साम्प्रदायिक नहीं जज्बाती ना लेखन
एक नागरिक भी न करे क्या ऐसी बात।
धीरेन्द्र सिंह
निहत्थों की घेर हत्या है कोई घात
एक हवा कहीं बिगड़ी बेखौफ हो
चुप रहना जीवंतता की न सौगात
निहत्थों की हत्या सोते का गला रेत
दोनों में मरे संत क्या कर रही है रात
कई पड़ रही हैं सलवटें बोल इंसानियत
क्या लुप्त की कगार पर आपसी नात
कुछ इसके विरोध में कुछ हैं बस मौन
कौन कहे देश में कब, कहां भीतरघात
साम्प्रदायिक नहीं जज्बाती ना लेखन
एक नागरिक भी न करे क्या ऐसी बात।
धीरेन्द्र सिंह