अब भी तो बरसती हैं वैसी ही बदलियां
अब भी रहे हैं भींग पर वह बात नहीं
मनोभाव अब भी चाहे वही “अठखेलियाँ”
बदन की साध कहे, अब वह चाह कहीं
बूंदों में है फुहार ना बदलती हैं व्यवहार
सोंधी महकती मिट्टी, मेघ की छांह वही
एक सिहरन बदन बोलती थी पल-पल में
मन निरंतर बोल रहा, नेह की आह नहीं
न बदला मौसम न बदली पनपती युक्तियां
फिर क्या है बदला, किसी को ज्ञात नहीं
चाह की जेठ में तड़पती लगी हृदय धरा
मेघ लगे रहे रिझा, बूंदों की सौगात नहीं।
धीरेन्द्र सिंह
07.04.2025
19.48