रविवार, 6 अक्तूबर 2024

कौन जाने

 हृदय डूबकर नित सांझ-सकारे

हृदय की कलुषता हृदय से बुहारे

बूंदें मनन की मन सीपी लुकाए

हृदय मोती बनकर हृदय को पुकारे


इतनी होगी करीबी कुशलता लिए

आकुलता में व्याकुलता हँसि निहारे

कौंधा जाती छुवन एक अनजाने में

होश में कब रहें ओ हृदय तो बता रे


भाग्य से प्यार मिलता खिलता हुआ

मंद मंथर मुसाफ़िर मधुर धुन सँवारे

एक पवन बेबसी से दूरियां लय धरी

गीत अधरों पर सज नयन को दुलारे


यह कौन जागा हृदय भर दुपहरिया

आंच उनकी रही भाव मेरा जला रे

लिख दिया कौन जाने सुनेगी वह कब

हृदय गुनगुनाए मन झंकृत मनचला रे।


धीरेन्द्र सिंह

06.10.2024

13.08




शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

संजाल

 इंटरनेट के जंगल में

उलझा व्यक्ति

स्वयं को पाता व्यस्त

होकर मस्त,

कामनाएं 

फुदकती गौरैया सी

भटक चलती है तो

कभी ढलती है

मन को रखते व्यस्त,


गुजरते दिन लगे

जाते हैं भर

सुखभाव

करते निभाव और

बदलते स्वभाव

दौड़ते रहता है मन

कस्तूरी मृग सा,

लगे धमनियां बन चुकी

इंटरनेट संवाहक;


व्यक्ति

संजाल में

कर निर्मित जाल

जंगल हो गया है।


धीरेन्द्र सिंह

05.10.2024

09.28



मंगलवार, 1 अक्तूबर 2024

शब्द धमाका

जितना छपता है

क्या उतना

पढ़ा जाता है ?

लेखन और पाठक

हैं इतना-उतना,

जोड़ पाता है ?


अब लोग पढ़ते नहीं

देखते हैं

घटित सभी घटनाएं, 

शब्द झूठ बोलते लगें

लोग दृश्य को अपनाएं,

छूट रहे हैं शब्द

दृश्य ही अच्छा लगे

जग जैसे निःशब्द;


शब्दों का सन्नाटा ?

है गलत शोध

शोर कर रहे शब्द

ज्यों धमाका बोध,

शाब्दिक प्रत्याशा

थी ऐसी न भाषा,

किसको दें दोष

है सभी में जोश,

चेतना स्तब्ध

जग जैसे निःशब्द;


क्या है धमाका बोध ?

क्या शब्द का यह शोध ?

क्या है यह प्रतिरोध ?

किसका ?

भाषा का, संस्कृति का

एक सोच या प्रारब्ध 

हलचलें आबद्ध

कोई नहीं निःशब्द।


धीरेन्द्र सिंह

01.10.2024

20.47, पुणे