गुरुवार, 31 अक्टूबर 2024

हाँथ पकड़ लें

 बर्तन जितनी भूख हो गई

अदहन नहीं सुनाने को

भरसांय सा जग लगे

क्या-क्या चला भुनाने को


पेट अगन अब जग गगन

कौन आता समझाने को

जग दहन में कहां सहन

कितना कुछ है भरमाने को


चलिए हाँथ पकड़ लें अब तो

समरथ सारथ हो जाने को

पाया बहुत अधिक है लेकिन

बहुत अधिक है निभाने को।


धीरेन्द्र सिंह

31.10.2024

11.20




मंगलवार, 29 अक्टूबर 2024

एकताल

 जब दिए में रहे छलकता घी-तेल

रंग लाती ज्योति-बाती-दिया मेल


इधर-उधर न जलाएं भूल पंक्तियां

किधर-किधर देखिए हैं रिक्तियां

अनुरागी उत्तम विभेद का क्यों खेल

रंग लाती ज्योति-बाती-दिया मेल


एक जलाए फुलझड़ी दूजा सुतली बम

कही दिया लौ कहीं बिजली चढ़ खम्ब

एकरूपता में भव्यता खिले जस बेल

रंग लाती ज्योति-बाती-दिया मेल


एक माला सुंदर गूंथे बहुरूप बहुरंग

एकताल सुरताल संगीत दिग-दिगंत

दीपोत्सव आत्मउत्सव ना पटाखा खेल

रंग लाती ज्योति-बाती-दिया मेल।


धीरेन्द्र सिंह

29.10.2024

13.23




सोमवार, 28 अक्टूबर 2024

अनुष्ठान हो गया

 मैं खुद में खुद का अनुष्ठान हो गया

मंदिर की गली का मिष्ठान हो गया


उपहार में प्राप्त कई आत्मीय आभास

परिवेश मेरा भर दिए मिठास ही मिठास

मधुरता के व्योम में गुमान हो गया

मंदिर की गली का मिष्ठान हो गया


रंगबिरंगी लड़ियों में जुगलबंदी के तार

एक लड़ी दूजे की ज्योति करे स्वीकार

घर जगमगा रहे बढ़ा तापमान हो गया

मंदिर की गली का मिष्ठान हो गया


विधान का संविधान यह निज अनुष्ठान

अपनत्व से आपूरित हैं सारे ही मेहमान

इस भावुकता में अनुभव कमान हो गया

मंदिर की गली का मिष्ठान हो गया।


धीरेन्द्र सिंह

28.10.2024

19.20



शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

अस्तित्व

 तुम मुझे टूटकर जिस दिन गुनगुनाओगी

अपने दामन में मेरे अस्तित्व को पाओगी


पहल कर नारी को इंगित करना न आदत

तुम मेरी होगी जैसे हो सूफियाना इबादत

मुझे छूकर तुम नव रचनाकार बन जाओगी

अपने दामन में मेरे अस्तित्व को पाओगी


छुवन मन का है होता यूं ही चर्चित है तन

विपरीत लिंगी आकर्षण प्राकृतिक चलन

मुड़ जाऊंगा यदि मुझे निःशब्द उलझाओगी

अपने दामन में मेरे अस्तित्व को पाओगी


वह होते और जो करते नारी का पीछा

न चाहे नारी तो कोई स्पंदन नहीं होता

मुझे विश्वास मेरे भावों को समझ पाओगी

अपने दामन में मेरे अस्तित्व को पाओगी।


धीरेन्द्र सिंह

25.10.2024

20.58




धूल जमी

 दीपावली से पहले घर की स्वच्छता

चाहिए लगनभरी लक्ष्यकारी उन्मत्तता


दीवारों पर धूल जमी उसकी हो सफाई

पानी-सर्फ घोल संग स्पंज की दौड़ाई

वैक्यूम क्लीनर की रहे सर्वोच्च इयत्ता

चाहिए लगनभरी लक्ष्यकारी उन्मत्तता


छोड़ देते कभी कर वादा गृह सज्जाकार 

मिलकर करते सफाई तब संग परिवार

कितनी निखर जाती यह संग संयुक्तता

चाहिए लगनभरी लक्ष्यकारी उन्मुक्तता


जग उठीं फिर घर की चहारदीवारी

दीपोत्सव पर्व के प्रकाश की लयकारी

कुछ दिन शेष ज्योतिपर्व उच्च महत्ता

चाहिए लगनभरी लक्ष्यकारी उन्मुक्तता।


धीरेन्द्र सिंह

25.10.2024

16.59 




बुधवार, 23 अक्टूबर 2024

देह परे

 खोज में भी मौज है बहुत

संभावनाओं से हरा-भरा

प्यार वह ना कर सका

हादसों से जो भी है डरा


कामनाएं करें निरंतर याचनाएं

मन खिला-खिला रहा मुस्करा

भाव तरंगे मिले अनुकूल भी

बिन नहाए गंगा लगे मन तरा


अंकुश से भरे जो जीव हैं

अपने बंधनों से गिरे भरभरा

तृप्ति इनकी रुग्ण रहती सदा

और चाहें बढ़े समाज डरा-डरा


मुक्ति देती युक्ति जो करे प्रयुक्ति

देह दीप है जिसने लौ भरा

आत्मलीन हो पढ़ सका आत्मबोल

देह परे जिसने कुशल देह धरा।


धीरेन्द्र सिंह

24.10.2024

11.58


आंच

 प्रीत तुम्हें प्रतीति बना न सकी

रीत तुम्हें अतिथि बना न सकी

एक हवा का झोंका था गुजर गया

नीति तुम्हें नियति बना न सकी


तुम लपट लौ सा आकर्षण लिए

आंच हवन की जता न सकी

कामनाएं मंत्र सी होती रहीं उच्चारित

वेदिका सा तुमको सजा न सकी


कौन जातक बना याचक है रहस्य 

उपासना प्रणय को जगा न सकी

आत्माएं दोनों की थी हृदय दूर

आराधना भजन को पगा न सकी


उस अवधि की गांठ बंधती खुलती

स्मृतियों की डाल लचका न सकी

न जाने कब कुहूक जाती कोयल

यादें मुड़ती रहीं पर भटका न सकीं।


धीरेन्द्र सिंह

24.10.2024

10.10




मीठा दर्द

 मीठा-मीठा दर्द मिला है सयाने में

तुम बिन और रखा क्या जमाने में


बंधन में बंधे हुए जैसे हल में नधे हुए

चुपके-चुपके हैं दौड़ लगाते वीराने में

और सामाजिकता है घूरे, लगातार इसको

यह अपनी मस्ती में, बचते भरमाने में


प्यार रात को गुंजित होता, जैसे जुगनू

दिन फूलों सा लगता पल महकाने में

दिन ऐसे हैं गुजर रहे झिलमिल गुनगुन

ऐसे प्रेमी सहमत सब मिलता अनजाने में


कुछ भी नया नहीं, सदियों से होते आया

प्यार अगर तो, मिलते दुश्मन जमाने में

दिल ने दिल को चाह लिया, क्या गलती है

क्यों हो जाते बेदर्दी, उन्मुक्त जी पाने में।


धीरेन्द्र सिंह

23.10.2024

17.57




मंगलवार, 22 अक्टूबर 2024

इलेक्ट्रॉनिक प्यार

 इलेक्ट्रॉनिक बयार है मोबाइल की छांव

गिटिर-पिटिर अक्सर तो कभी कांव-कांव


चिकनी स्क्रीन पर दौड़ रही हैं अंगुलियां

अक्षर-अक्षर टाइप कर बोल रहे बोलियां

कहना औपचारिकता मांगे बस एक ठाँव

गिटिर-पिटिर अक्सर तो कभी कांव-कांव


फ़िल्टर से चेहरे में भरकर गजब निखार

हर दिन चाहें हो जाए इलेक्ट्रॉनिक त्यौहार

वीडियो चैट करते चले भाव लहर नाव

गिटिर-पिटिर अक्सर तो कभी कांव-कांव


धीर बनकर परिचय फिर बन जाते अधीर

इलेक्ट्रॉनिक प्यार में कहां मर्यादा लकीर

ब्लॉक अनब्लॉक खेल में करते आँय-बाँय

गिटिर-पिटिर अक्सर तो कभी कांव-कांव।


धीरेन्द्र सिंह

22.10.2024

16.32




रविवार, 20 अक्टूबर 2024

उम्र

 जीवन सत्य है, उम्र एक पड़ाव

अनुभूतियों में रिश्ते अनेक छांव


बढ़ती हुई उम्र की अपनी रीतियाँ

अपने लागों बीच हैं अनेक ठाँव

व्यक्ति क्या चाहता सृष्टि जानें

अनुभूतियों में रिश्ते अनेक छांव


अद्भुत व्यक्तित्व मिले हर मोड़

जोड़तोड़ जीवन को देता रहा पांव

मां-पिता का सानिध्य अबोला है

अनुभूतियों में रिश्ते अनेक छांव


नियति भी नियत है लेकर नेमत

जीवन डगर अपनी कुछ छाले घाव

प्रसन्नताएँ आशीष बन रहीं बरस 

अनुभूतियों में रिश्ते अनेक छांव।


धीरेन्द्र सिंह

21.10.2024

06.31




शनिवार, 19 अक्टूबर 2024

बदरी

 पर्वतों की तलहटी

श्वेत नदी अनुभूति

सूर्योदय संग उठती

बदरी सी दे प्रतीति


धीरे-धीरे उठते बादल

जैसे पहाड़ी गीत

गहन सघन गगन 

पर्वत आगे श्वेत भित्त


कोहरा या बादल

हैं पहाड़ मीत

हैं पहाड़ बतलाते

प्रकृति जीव रीत


सब धवल उन्मुक्त

हवाएं रच गीत

पहाड़ियों की गुंजन

ऊर्जा उत्साहित सींच।


धीरेन्द्र सिंह

19.10.2024

20.23, महाबलेश्वर



शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2024

पहाड़ियों के ऊपर

 जीवन के झूमर, पहाड़ियों के ऊपर

छोटे-छोटे मकान, आसमां को छूकर


समतल न राहें, समतल नहीं जीवन

श्रम साधना पुकारे, दृगतल हरियाली छूकर

गहन शांति चहुंओर, अंग-अंग रच भोर

छोटे-छोटे मकान, आसमां को छूकर


हरे झुरमुटों में, उभरता कहीं समाज

सड़क पर कहीं अकेला, संभावना ऊपर

कर्म के अंजोर में भाग्य को बो कर

छोटे-छोटे मकान, आसमां को छूकर


पर्यटन में निहित है विकास संभानाएँ

होता है उदित सूरज यात्री मंत्र जपकर

अतिथियों का स्वागत मन मुदित होकर

छोटे-छोटे मकान, आसमां को छूकर।


धीरेन्द्र सिंह

18.10.2024

17.47, पंचगनी


गुरुवार, 17 अक्टूबर 2024

तथ्य का त्यौहार

 चल मोहब्बत कर लें सोहबत

कौन अच्छा उनके बनिस्बत


एक समय सौभाग्य सा है

एक गति में निजता अस्मत

एक प्रयास लिए नव उल्लास

सोचना क्या, हो जा सहमत


शौर्य यदि है नहीं, चल नहीं

वरना बोलेगा हृदय, कैसी जहमत

याचना से कब मिला है प्यार

बिन झुके कब मिल सकी रहमत


मर्यादाएं उलझनों में हैं उलझाती

सोचना इतना नहीं, ओ मोहब्बत

कब हृदय दर्शाता है यूं व्यग्रता

तथ्य का त्यौहार, दे न अभिमत।


धीरेन्द्र सिंह

17.10.2024

21.43





बुधवार, 16 अक्टूबर 2024

लिखना आसान

 लिखना आसान है

 गढ़ना नहीं

प्यार खिलवाड़ कहां

डरना नहीं,


यही सूक्ति वाक्य

निस जो दोहराए

प्यार की पायलिया

खनक फिर धाए,

व्हाट्सप्प, टेलीग्राम,

इंस्टा जो भी पाए,

मूड मिजाज जांच 

प्रेम चर्चा दौड़ाएं,


लिखते समय भाव

मढ़ना नहीं

प्यार खिलवाड़ कहां

डरना नहीं,


हाल पूछो, चाल पूछो

और कोई मलाल पूछो

खुश रहें खिलखिलाएं

युक्तियां क्या हो सोचो,

निरंतर जीवंतता पनपे

समय से अवसर नोचो,

कोई धड़क उठा क्यों

तर्ज है नहीं सोचो,


लिखते समय निभाव

उघड़ना नहीं,

प्यार खिलवाड़ कहां

डरना नहीं।


धीरेन्द्र सिंह

16.10.2024

06.20




सोमवार, 14 अक्टूबर 2024

अनुगूंज

 एक अनुगूंज

मद्धम तो तीव्र

सत्य को कर आलोड़ित

यही कहती है,

धाराएं वैसी नहीं

जैसी दिखती

बहती हैं;


मौलिकता

या तो कला में है

या क्षद्म प्रदर्शन में

फिर व्यक्तित्व क्या है

परिस्थितियों के अनुरूप

मेकअप किया एक रूप

या बदलियों में

उलझा धूप;


पगडंडियों की अनुगूंज

खेत-खलिहान से होते

दूब पर कंटक पिरोते

गूंजती है मद्धम

तलवों की आह

दब जाती है,

क्या अब यही

जीवन थाती है ?


गूंज बन पुंज

हो रहा अनुगूंज

कोई रहा देख

किसी को रहा सूझ,

जिंदगी ठुमक कहती

मनवा मन से बूझ।


धीरेन्द्र सिंह

15.10.2024

09.26




शनिवार, 12 अक्टूबर 2024

वर्चस्वता

 सब कुछ अगर आप हैं

तो आप कौन हैं?

यही समझना है मुश्किल


कि ताप कौन हैं;


हर क्षण में लगते संयमित

यह थाप कौन है?

भावनाओं पर यह नियंत्रण

कि अपराध कौन है;


कब होंगे सहज आप भी

कि निभाव कौन है?

सर्वस्वता का भ्रम है क्यों

कि यह बिखराव क्यों है।


धीरेन्द्र सिंह

13.10.2024

08.19

पुणे



गुरुवार, 10 अक्टूबर 2024

कविता

 क्या लिखा जाए?

कुछ नहीं सुझाती

अंतर्चेतना तब

उठता है यह प्रश्न

और विवेक

लगता है ढूंढने

भावनात्मक आधार;


लिखी जाती है तब 

कविता मस्तिष्क से

गौण हो जाता तब

भाव

अधिकांश कविताओं का

ऐसा ही निभाव:


लिखे जाते हैं जब विचार

बौद्धिकता देती हुंकार

कथ्य पक जाते

भट्टे की ईंट की तरह

और भाव

हो जाते ठोस,

कविता नहीं जोश;


भावनाओं की डोरियों पर

फैलाए जाते हैं शब्द

तब उगती है कविता

कभी सूर्य से

कभी चाँद सी

और सिमट जाती है जिंदगी

तेल भरे बालों में

लाल फीता का

दो फूल सजाए

रोशनी सी।


धीरेन्द्र सिंह

11.10.2024

09.16


बुधवार, 9 अक्टूबर 2024

बचना क्या

 बांध मन यूं रचना क्या

खाक होने से बचना क्या


लौ बढ़ी लेकर नव उजाला

दीप्ति में कितना रचि डाला

कोई सोचे यूं जपना क्या

खाक होने से बचना क्या


सर्जन की गति है अविरामी

सहज, सकल गति है ज्ञानी

कोई सोचे यूं ढहना क्या

खाक होने से बचना क्या


रीत जाता निर्माण समय संग

मिटना सत्य पर अथक मृदंग

कोई सोचे यूं कहना क्या

खाक होने से बचना क्या।


धीरेन्द्र सिंह

09.10.2024

13.11




सोमवार, 7 अक्टूबर 2024

टप्प

 शांत सरोवर सा मन

अति मंद उठती

यादों की लहरें,

भावनाएं 

घने जंगल की

महुवा सा पसरे,

गुनगुनाता, बुदबुदाता

मन

भीतर ही भीतर फहरे;


सरोवर के किनारे

उगी हरी घास

झुंड में हो इकहरे,

पास की हलचलें

प्रकृति को निहारें

अपनी ही रीत भरे,

सरोवर सा मन

इन सबके बीच

सोचे धंसे गहरे;


एक बूंद टप्प

ध्वनि संग वलय

अनुभूति भाव दोहरे,

मुस्करा उठा सरोवर

तरंग बज उठी

कंपित जल कंहरे,

क्यों की वह याद

कोई ना फरियाद

सरोवर बस संवरे।


धीरेन्द्र सिंह

07.10.2024

13.52




रविवार, 6 अक्टूबर 2024

कौन जाने

 हृदय डूबकर नित सांझ-सकारे

हृदय की कलुषता हृदय से बुहारे

बूंदें मनन की मन सीपी लुकाए

हृदय मोती बनकर हृदय को पुकारे


इतनी होगी करीबी कुशलता लिए

आकुलता में व्याकुलता हँसि निहारे

कौंधा जाती छुवन एक अनजाने में

होश में कब रहें ओ हृदय तो बता रे


भाग्य से प्यार मिलता खिलता हुआ

मंद मंथर मुसाफ़िर मधुर धुन सँवारे

एक पवन बेबसी से दूरियां लय धरी

गीत अधरों पर सज नयन को दुलारे


यह कौन जागा हृदय भर दुपहरिया

आंच उनकी रही भाव मेरा जला रे

लिख दिया कौन जाने सुनेगी वह कब

हृदय गुनगुनाए मन झंकृत मनचला रे।


धीरेन्द्र सिंह

06.10.2024

13.08




शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2024

संजाल

 इंटरनेट के जंगल में

उलझा व्यक्ति

स्वयं को पाता व्यस्त

होकर मस्त,

कामनाएं 

फुदकती गौरैया सी

भटक चलती है तो

कभी ढलती है

मन को रखते व्यस्त,


गुजरते दिन लगे

जाते हैं भर

सुखभाव

करते निभाव और

बदलते स्वभाव

दौड़ते रहता है मन

कस्तूरी मृग सा,

लगे धमनियां बन चुकी

इंटरनेट संवाहक;


व्यक्ति

संजाल में

कर निर्मित जाल

जंगल हो गया है।


धीरेन्द्र सिंह

05.10.2024

09.28



मंगलवार, 1 अक्टूबर 2024

शब्द धमाका

जितना छपता है

क्या उतना

पढ़ा जाता है ?

लेखन और पाठक

हैं इतना-उतना,

जोड़ पाता है ?


अब लोग पढ़ते नहीं

देखते हैं

घटित सभी घटनाएं, 

शब्द झूठ बोलते लगें

लोग दृश्य को अपनाएं,

छूट रहे हैं शब्द

दृश्य ही अच्छा लगे

जग जैसे निःशब्द;


शब्दों का सन्नाटा ?

है गलत शोध

शोर कर रहे शब्द

ज्यों धमाका बोध,

शाब्दिक प्रत्याशा

थी ऐसी न भाषा,

किसको दें दोष

है सभी में जोश,

चेतना स्तब्ध

जग जैसे निःशब्द;


क्या है धमाका बोध ?

क्या शब्द का यह शोध ?

क्या है यह प्रतिरोध ?

किसका ?

भाषा का, संस्कृति का

एक सोच या प्रारब्ध 

हलचलें आबद्ध

कोई नहीं निःशब्द।


धीरेन्द्र सिंह

01.10.2024

20.47, पुणे