बुधवार, 9 अप्रैल 2025

आखेटक

 कितना रचेगा कोई

जीवन अपना

कब तक

रहेंगी दौड़ती कामनाएं

हाथों में लिए टहनियां

और हांफती हांकती

खुद को, कि

निकल आएं फूल

सूखी टहनियों में,

जीवन

यही तो मांगता है,


कितना हंसेगा कोई

खिलखिलाकर 

होती है सीमा भी

और कैसे मूंद ले आंखें

परिवेश जा रहा बदला

हौले-हौले चुपचाप

और हो रही चर्चा

लगाएं उन्मुक्त ठहाके

अच्छा रहेगा स्वास्थ्य,

उत्सवी परिवेश में

क्षद्म यही चाहता है,


स्वयं के लिए

रच क्या दिए

तेल की तरह

भरते रहे दिए,

अब तो जाग जाओ

स्वयं की लौ जलाओ,

कामनाओं के तरकश पर

भावनाओं के तीर चलाओ,

मनुष्य मूलतः

आखेटक प्रवृत्ति का है

और मन

आखेट करना चाहता है।


धीरेन्द्र सिंह

10.04.2025

09.42