कितना रचेगा कोई
जीवन अपना
कब तक
रहेंगी दौड़ती कामनाएं
हाथों में लिए टहनियां
और हांफती हांकती
खुद को, कि
निकल आएं फूल
सूखी टहनियों में,
जीवन
यही तो मांगता है,
कितना हंसेगा कोई
खिलखिलाकर
होती है सीमा भी
और कैसे मूंद ले आंखें
परिवेश जा रहा बदला
हौले-हौले चुपचाप
और हो रही चर्चा
लगाएं उन्मुक्त ठहाके
अच्छा रहेगा स्वास्थ्य,
उत्सवी परिवेश में
क्षद्म यही चाहता है,
स्वयं के लिए
रच क्या दिए
तेल की तरह
भरते रहे दिए,
अब तो जाग जाओ
स्वयं की लौ जलाओ,
कामनाओं के तरकश पर
भावनाओं के तीर चलाओ,
मनुष्य मूलतः
आखेटक प्रवृत्ति का है
और मन
आखेट करना चाहता है।
धीरेन्द्र सिंह
10.04.2025
09.42