राष्ट्र ना हो कभी धृतराष्ट्र
राग अपना जो संवारिए
झोंके न बहा लें लुभावने
धार संस्कृति की निखारिए
वैभव, पद, यौन के खुमार
धर्म राह से इनको गुजारिए
सबके वश का नहीं ये प्यार
दृष्टि सृष्टि संग जी संवारिए
ऐसे प्रवचनों की बहती बहार
कर्महीन, तर्कदीन को बुहारिए
शौर्य, शक्ति, पराक्रम ही सत्य
शक्ति ही साध्य इन्हें संवारिए।
धीरेन्द्र सिंह
11.04.2022
10.18