द्रुम अठखेलियों में देखा न जाए जग पीर
तुम प्रत्यंचा बन जाओ मैं बन जाऊं तीर
अब प्रणय में उभर रहा जीवन का संज्ञान
चुम्बन आलिंगन से विचलित हुआ विधान
मैं क्रोधित विचलित तुम भी तो हो गंभीर
तुम प्रत्यंचा बन जाओ मैं बन जाऊं तीर
मानवता जब मनचाहा रच ले झंझावात
अपने खूंटे गाड़कर लगे सींचने नात
देखो सूर्य उगा है जमघट दर्शाए प्राचीर
तुम प्रत्यंचा बन जाओ मैं बन जाऊं तीर
सृष्टि का नहीं विधान अनर्गल हो संधान
अपना भी पुलकित रहे जगमग अन्य मकान
अकुलाहट रोमांचित कर हो स्थापित धीर
तुम प्रत्यंचा बन जाओ मैं बन जाऊं तीर।
धीरेन्द्र सिंह
11.08.2024
06.05