मन उलझा एक द्वार पहुंच
प्रीति भरी हो रही है बतियां
सांखल खटका द्वार खुलाऊँ
डर है जानें ना सब सखियां
बतरस में भावरस रहे बिहँसि
गति मति रचि सज रीतियाँ
नीतियों में रचि नवपल्लवन
सुसज्जित पुकारें मंज युक्तियां
देख रहे संस्कार पुकार मुखर
दिलचाह उछलकूद निर्मुक्तियाँ
या तो परम्परा की रूढ़ियों गहें
या वर्तमान गति की नियुक्तियां।
धीरेन्द्र सिंह
21.08.2024
12.10