मुझसे मुझको कहने का अधिकार
छीन लिया कैसे वह, दब प्रतिकार
स्व की स्वरांजलि, नव भाव लिए
परकाया समझा था, कब स्वीकार
वातायन था मन, कलरव गुंजित
कुहुक बोल थे मिश्रित, रचि श्रृंगार
तोड़ दिए क्यों रहन सभी बन लाठी
परकाया समझा था, कब स्वीकार
रूप आकर्षण और नव देह मोह
ना बिछोह, दुःख ना, चीत्कार
चुपके से गहि मौन सिधारे
परकाया समझा था, कब स्वीकार
बदन दौड़ पर मन का ठौर यहीं
व्यक्तित्व गूंथ, अस्तित्व चौबार
बदले, जैसी हो बरसती बदरिया
परकाया समझा था, कब स्वीकार
सावन में डोले, झुलसी स्मृतियां
बोले क्या मन, क्या अब दरकार
यह छल बोलूं क्यों, कि भूल गए
परकाया समझा था, कब स्वीकार।
धीरेन्द्र सिंह
19.07.2023
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