गीत लिखने को गगन रहे आतुर
सज-धज कर धरा भी इठलाए
प्रकृति प्रणय है अति प्रांजल
प्रीत गीत सब रीत अकुलाए
उग सी रही मन बस बन दूर्वा
नैवेद्य वहीं बन मूक चढ़ाएं
कोमल दूर्वा झूमे पुष्परहित
मन समझे उन्हें छू गई ऋचाएं
ग्रहण लग गया धरा को अब तो
शंकर तांडव, गगन छुप जाए
धरती लिपटी शंकर के डमरू
गगन अगन, जल मुस्काए
यही प्रकृति है प्रणय यही है
शंकर क्यों तांडव मचाएं
गीत, गगन-धरा नित की बातें
धरती चुपके से पढ़ जाए।
धीरेन्द्र सिंह