भोर भावनाओं की ले चला बहंगी
लक्ष्य कहार सा बन रहा सशक्त
वह उठी दौड़ पड़ी रसोई की तरफ
पौ फटी और धरा पर सब आसक्त
सूर्य आराधना का है ऊर्जा अक्षय
घर में जागृति, परिवेश से अनुरक्त
चढ़ते सूरज सा काम बढ़े उसका
आराधनाएं मूक हो रहीं अभिव्यक्त
भोर की बहंगी की है वह वाहक
रास्ते वही पर हैं ठाँव विभक्त
कांधे पर बहंगी और मुस्कराहट
भारतीयता पर, हो विश्व आसक्त
भोर भयी ले चेतना विभिन्न नई
बहंगी वही पर धारक है आश्वस्त
सकल कामना रचे घर चहारदीवारी
कर्म भोर रचकर यूं करती आसक्त।
धीरेन्द्र सिंह
25.04.2024
12.15