आज बहुत जग धूम मचाए, हिंदी
आ सहला दूं सिर थोड़ा सा, हिंदी
बार-बार फिर एकबार तू मंचाधीन
कहें लोग तू सशक्त तू है प्रवीण
भारत के माथे की तू ही अटल बिंदी
आ सहला दूं सिर थोड़ा सा, हिंदी
मृदुल यातना का दिन है यह पर्व
झूठ कितना दर्शाता है मंचों का गर्व
तू यह सुनते-सुनते हो जाती चिंदी-चिंदी
आ सहला दूं सिर थोड़ा सा, हिंदी
तू असत्य वादों की, स्वीकृत सत्य है
विचलित भावों का भी, अमूर्त कथ्य है
तुझको तुझसे लूट रहे, भाषा की हदबंदी
आ सहला दूं सिर थोड़ा सा, हिंदी
चाहा था चुप रहूं और परिवेश गहूं
नए वायदे, संग पुरानी धार बहूँ
तेरी बेचैनी ने तोड़ा निर्मित तटबंदी
आ सहला दूं सिर थोड़ा सा, हिंदी।
धीरेन्द्र सिंह
14.09.2023
10.08