शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

गुलाब

 

चल गुलाब ढल गुलाब

हलचल सा तू बन गुलाब

 

अंगुलियों के स्पर्श बतलाएं

पंखुड़ियों भाव लिपट अंझुराएं

छुवन से जाने इश्क़ नवाब

हलचल सा तू बन गुलाब

 

मेरी हलचल गीत ढल गई

मीत मेरी अतीत बन गई

उनके मन हो जतन गुलाब

हलचल सा तू बन गुलाब

 

शब्द यूं महको करें कुबूल

भावना में लिपटे हैं फूल

इन फूलों से सज हों माहताब

हलचल सा तू बन गुलाब।


 

धीरेन्द्र सिंह

10.02.2024

21.44

व्यक्ति

 कल्पनाएं अथक पथिक

भाव से राहें रचित

लक्ष्य लंबा हो गया

व्यक्ति कहीं खो गया


मैं से कौन है परिचित

रोम-रोम संपर्क जड़ित

सरायखाना हो गया

व्यक्ति कहीं खो गया


शक्ति, भक्ति और युक्ति

यह स्थिर उसकी मुक्ति

प्रवाह नव वो गया

व्यक्ति कहीं खो गया


बौद्धिक अति बौद्धिक वर्गीकरण

सबका सब ही हैं शरण

विभाजन अंजन ले गया

व्यक्ति कहीं खो गया।



धीरेन्द्र सिंह

10.02.2024

17.24

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

नारीत्व

 

अकेले स्व स्पंदित हूँ तो

लगे नारीत्व घेरा है

आत्म आनंद प्लावित हो

लगे यह कैसा फेरा है

 


भाव तब शून्य रहता है

लगे अव्यक्त अंधेरा है

एक अनुभूति कमनीय सी

सघन निजत्व डेरा है

 

प्रणय का पल्लवन कब कैसे

स्वाभाविक चित्त टेरा है

प्रणय क्यों बेलगाम सा

क्या यह एकल सवेरा है


निज पुरुषत्व आह्लादित प्रचुर

कहे क्या मेरा क्या तेरा है

सुजान सत्य से मिलता

जहां नारीत्व का घेरा है।

 

धीरेन्द्र सिंह

09.02.2024

09.45

बुधवार, 7 फ़रवरी 2024

फिर यार चलें

 अकुलाती चेतना में फिर वही बयार चले

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें


भटक गया मन था नव आकर्षण पीछे

कहां वह प्रतिभा मुझ जैसे कोई सींचे

अब तुम सोच रही कैसे नई धार चलें

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें


युक्तियों से मुक्ति कहां मिल सकी किसे

सूक्तियों से सुप्त भावनाएं कब कहां रिसे

मन में धारित कल्पनाएं यथार्थ के हों सिलसिले

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें


आदिकाल, भक्तिकाल बीत गया प्यार का

बाल्यकाल, अल्हड़काल रीत गया धार का

आधुनिककाल में नव भाव छंदमुक्त चलें

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें


परिवर्तनों के दौर में चुस्त दिखें विकल्प

प्रत्यावर्तनों पर गौर कर मुक्त भाव संकल्प

तरंगों पर तृषित आस कयास संग बहते चले

प्रीत की प्रतीति संग चल फिर यार चलें।


धीरेन्द्र सिंह

08.02.2024


12.09

सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

चाहतों की झुरमुट

 मुझे प्यार का वह सदन कह रहे

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे


ऐसी लचकन कहां देती है जिंदगी

चाहतों में समर्पण की जो बुलंदगी

कैसे साँसों में सरगम शयन कर रहे

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे


कौन करेगा पहल प्रतीक्षा है बड़ी

जिंदगी देती क्यों है ऐसी कुछ घड़ी

मन में मन का ही गबन कर रहे

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे


लोग क्या कहेंगे है सघन भी झुरमुट

अभिव्यक्तियों के भाल दें कैसे मुकुट

अनुभूतियां मृदुल यूं सघन कर रहे हैं

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे हैं


हां इधर भी तो तड़पन की हैं धड़कनें

चाह में उजास तो कहां हैं अड़चने

सघन व्योम का वह जतन कर रहे

चाहतों की झुरमुट से नमन कर रहे।


धीरेन्द्र सिंह


06.02.2024

07.14

रविवार, 4 फ़रवरी 2024

सूरज

 मुट्ठी में भरकर शाम सिंदूरी सूरत

जो चलने लगा बीच बस्तियां

चमकने लगे कई सूरज नयन


खुल गए सारे दरवाजे खिड़कियां


तंग गलियों थी ठुसी बैठी चाल

समेटकर अपने भीतर अंधियार कश्तियाँ

ना सोती ना उठती लगातार जगती

एक सूरज की चाहत लिए हस्तियां


पकड़ हाँथ मेरा कोई एक बोला

सूरज से जुड़ी उन सबकी मस्तियाँ

दूजा बोला रुको जरा तो कहो

क्या लूटने को आमादा हैं गश्तियाँ


हाँथ छूटा जो सूरज, लपक सब पड़े

रोशनी में दिखी जिंदगी कुलबुलाती दरमियां

एक तड़प ले उठी, हुंकारती आवाज़ें

टुकड़ा-टुकड़ा हुआ सूरज,चाह को शुक्रिया।


धीरेन्द्र सिंह

04.02.2024

19.39

शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

लेखन में नारी

 अधिकांश पुरुष के लेखन में केंद्र नारी

त्याग, तपस्या, समर्पण की अभिव्यक्तियां

नारी सब सह ले धरा की तरह

गजब का कपट, पुरुष पार्श्व आसक्तियां


भोली है नारी भावनाओं का है प्रवाह

पुरुष प्रशंसा की करता नित युक्तियां

खुश हो जाती नारी पढ़कर साहित्य

नारी नहीं तो जग में रिक्तियां ही रिक्तियां


वर्षों से लगा है पुरुष नारी रिझाने में

कहता नारी में समाहित सर्व मुक्तियाँ

इस भरम का चरम उत्सवी नरम

स्वाहा कर खुद कितनी खुश हैं नारियां


करते नारीत्व पर चोट ऐसे रचनाकर

नारी पर ही लिखें जैसे पुरुष की न बस्तियां

सभी प्रतीक, उपमा, बिम्ब जुड़ी नारी

लेखन की बेरहम नारी से भरी कश्तियाँ।


धीरेन्द्र सिंह


04.02.2024

10.090

दीवानी


 

प्यार श्रृंगार अधर रचकर

खुमार आधार के अनुरागी

किस रूप मिलन दृग का

क्या प्रणय रीत है सहभागी

 

मुस्कान दबी कथा रचित

किस विधि हो जाते संज्ञानी

बिन संबोधन का सम्मोहन

निस अनुभूति प्रीत अनजानी

 

किस बात अधर पर बात रहे

किस राह सबर की चाह ढहे

कह सकने की जिज्ञासा भी 

किस शब्द को साज सांझ गहे

 

मन मोहित एक पुरोहित है

हर भाव सकल तिरोहित है

अब लगे कठिन है यजमानी

पर कब मानी है प्रीत दीवानी।

 

धीरेन्द्र सिंह

03.02.2024

16.50

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024

मोहब्बत का महीना

 

यूं पंख समेटे कब तक जीना है

उड़िए कि मोहब्बत का महीना है

 

पलक सींच लीजिए अकुलाहट भर

उड़ चलिए खूबसूरत रंगीन हैं पर

प्रकृति ने सौंदर्य हर ओर बीना है,

उड़िए कि मोहब्बत का महीना है

 

ग़ज़ल के हुस्न पर आपकी अंगड़ाई

वसंत बन महंत करने को चौधराई

भारतीय पाश्चात्य संयुक्त नगीना है

उड़िए कि मोहब्बत का महीना है

 

हृदय के भाव नयन पुतली में छाए

लगन के तार मगन तितली सा भाए

समझ लें आप किसीका दागिना हैं

उड़िए कि मोहब्बत का महीना हैं

 


हुआ क्या क्षद्म से उनका साथ छूटा है

प्रसंग अब भी यादों में संवाद रूठा है

बहारें अब भी झूमें वह तो हठी ना है

उड़िए कि मोहब्बत का महीना है।

 

धीरेन्द्र सिंह

02.02.2024

14.21

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

मस्तूल हो गए

 

आईने में भाव चेहरा फिजूल हो गए

जब से वो यकायक मस्तूल हो गए

 

एक सोच उधार का बिन विश्लेषण

मस्तूल होकर पा गए एक विशेषण

कर्म कर रहे थे जो धता दे गए

जब से वो यकायक मस्तूल हो गए

 

कहा गया कि नाव यह व्यापार करेगी

भाषा और संस्कृति का प्रचार करेगी

हो साथ लुटेरों के मशगूल हो गए

जब से वो यकायक मस्तूल हो गए

 

कोई कहे आपा कोई दोहा भी सिखाए

मस्तूल प्रकाशन का सर्व बात बताए

लालच में उलझ उजड्डों के मूल हो गए

जब से वो यकायक मस्तूल हो गए

 

ढाबा सी नौका में अकस्मात ही हिचकोले

हवाओं के वेग से नौका संग खूब डोलें

स्वार्थियों के बीच वह चाह फूल हो गए

जब से वो यकायक मस्तूल हो गए।

 


धीरेन्द्र सिंह

02.02 2024

09.52