शनिवार, 5 अप्रैल 2025

काव्य

 अधिकांश, काव्य शब्दों में समझते हैं

काव्यांश भावनाओं के यूं झुलसते हैं


लगता है प्रतीक, बिम्ब धुंध हो गए

भाव काव्य के कैसे अब कुंद हो गए

शब्द को पकड़ लोग क्यों सुलगते हैं

काव्यांश भावनाओं के यूं झुलसते है 


काव्य लेखन भ्रमित या काव्य समझ

काव्य बेलन सहित या भाव हैं उलझ

शब्द-शब्द काव्य अर्थ क्यों समझते हैं

काव्यांश भावनाओं के यूं सुलगते हैं


भावनाएं भर-भर शब्द चयन होते हैं

कामनाएं, कल्पनाएं काव्य नयन होते हैं

काव्य को संपूर्णता से न सुलझते हैं

काव्यांश भावनाओं के यूं सुलगते हैं।


धीरेन्द्र सिंह

05.04.2025

23.38

पुणे।

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

हिंदी समूह

 हिंदी समूह से जुड़ना

मेरा भाषा कर्तव्य है

तू बता समूह सफल

साहित्य क्या महत्व है?


कितने समूह छोड़ दिया

जो कहते भव्य हैं

कुछ ने मुझे निकाला

सोच बेबाक तथ्य है


सदस्य संख्या की भूख

साहित्य बुझा घनत्व है

बेतरतीब बढ़ रहा लेखन

रचना यही तत्व है


कुछ आते समय काटने

समूह टाइमपास भव्य है

कोई नहीं सचेतक वहां

कहते समूह सभ्य है।


धीरेन्द्र सिंह

08.16

05.04.2025

चैत्र नवरात्रि

 चैत्र नवरात्रि

जुड़े धर्मयात्री

कर्म आराधना

दुर्गा सर्वदात्री


व्रत है साध्य

लक्ष्य जगदात्री

आदिशक्ति माँ

सिद्ध हो नवरात्रि


पीड़ाएं वहन

क्रीड़ाएं दात्री

पीड़ा का बोझ

मैं जगयात्री


शौर्य दे शक्ति

तौर सर्वधात्री

हृदय लौ लपक

शुभ नवरात्रि🙏


धीरेन्द्र सिंह

04.04.2025

20.14



मॉडरेशन

 साहित्य और संस्कृति का हो निज आचमन

व्यक्ति वही करे रचनाओं का नित मॉडरेशन


समूह का आधार होगा, चयन मॉडरेटर का

समूह संस्थापक भी हैं, एडमिन साकार सा

साहित्य मर्म की संवेदनाओं का हो गमन

व्यक्ति वही करे रचनाओं का नित मॉडरेशन


हल्के-फुल्के मजाक दो-चार पंक्ति काव्य

ऐसे समूह में मॉडरेशन चुनौती न संभाव्य

विभिन्न हिंदी विधा हो तो चुनौतियां सघन

व्यक्ति वही करे रचनाओं का नित मॉडरेशन


आवश्यक नहीं हिंदी पीएचडी हो हिंदी ज्ञाता

कई पुस्तकें हों प्रकाशित हिंदी की जिज्ञासा

मगन, मुग्ध, मौलिक हिंदी के प्रति नयन

व्यक्ति वही करे रचनाओं का नित मॉडरेशन।


धीरेन्द्र सिंह

04.04.2025

15.45

मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

नग्नता

 वस्त्र की दगाबाजी

कहां से सीखा मानव

कब कहा प्रकृति ने

ढंक लो तन कपड़ों से,

सामाजिकता और सभ्यता का दर्जी

सिले जा रहा कपड़े

मानवता उतनी ही गति से

होती जा रही नग्न,

क्या मिला 

ढंककर तन,


धरती, व्योम पहाड़, जंगल

जल, अग्नि, वायु सब हैं नग्न,

जंगल में कैसे रह लेते हैं

पशु, पक्षी वस्त्रहीन

नहीं बहती जंगल में

कामुकता और अश्लीलता की बयार,

क्या मनुष्य ने

चयन कर वस्त्र

किया निर्मित हथियार ?


नग्न जीना नहीं है

असभ्यता या कामुकता

बल्कि यह 

स्वयं का परिचय,

स्वयं पर विश्वास,

शौर्य की सांस, 

शालीनता का उजास है,

नग्न कर देना

आज भी सशक्त हथियार है

मानवता

वस्त्र में गिरफ्तार है।


धीरेन्द्र सिंह

01.04.2025

16.49



सोमवार, 31 मार्च 2025

छल

 जो बीत गया वह सींच गया चिंतन कैसा

जो होगा वह भविष्य सोच अकिंचन कैसा

वर्तमान को ना लिखना है असाहित्यिक

आज का लेखन ना हो तो मंथन कैसा


मन के संदूक से निकली फैली वह चादर

सलवट कई सुगंध वही एहसास भी वैसा

मन को टांग बदन को हो कैसा अभिमान

प्रकृति दिखती वैसी मनोभाव हो जैसा


बोर कर देती है तुम्हारी विगत रचनाएं

प्यास एक अनबुझी चाह में हो समझौता

वर्तमान को छुपा विगत का गुणगान हो

वर्तमान से छल को कौन दे रहा न्यौता।


धीरेन्द्र सिंह

31.03.2025

23.01



रविवार, 30 मार्च 2025

वह

 सत्य सम्पूर्ण अपना जब जतलाया रूठ गईं

एक सदमा सा लगा और जैसे वह टूट गईं


मुझे ना पसंद कुछ छिपाना कुछ जताना

पारदर्शी ही होता है जिसे कहते हैं दीवाना

यह पारंपरिक प्रथा है नहीं है बात कोई नई

एक सदमा सा लगा और जैसे वह टूट गई


प्यार पर गौर करें तो उसका कोई तौर नही 

यार को भ्रम में रखें यह शराफत दौर नहीं

प्यार आध्यात्म का रूप है भक्ति रूप कई

एक सदमा सा लगा और जैसे वह टूट गई


पारदर्शिता ही प्यार का है सर्वप्रमुख रीत

प्यार तुमसे किया तुम में ही लिपटा गीत

मेरी बातों पर तुम्हारा “उफ्फ़” प्रतीक कई

एक सदमा सा लगा और जैसे वह टूट गई


कहा गया है नारी को समझना आसान नहीं

कल मेरी रचना को लाइक कर चली कहीं

इतने से अलमस्त हृदय निकसित भाव कई

एक सदमा सा लगा और जैसे वह टूट गई।


धीरेन्द्र सिंह

30.03.2025

20.43



शनिवार, 29 मार्च 2025

हिन्दू नववर्ष

 हिन्दू विक्रम संवत 2082 नववर्ष

चैत्र महीने का शुक्ल पक्ष प्रतिपदा

विक्रम संवत साल है सूर्य आधारित

वराह मेहर खगोल शास्त्री ने रचा


चक्रवर्ती विक्रमादित्य का राज तिलक

विक्रम संवत आरम्भ तिथि है नधा

कहीं न इसकी चर्चा बना अनजान

लें निर्णय इसका प्रयोग रहे सदा


सूर्य आधारित है हिन्दू वर्ष कलेंडर

चंद्र आधारित ही प्रयोग से बंधा

आरम्भ हो प्रयोग हिन्दू कलेंडर का

प्रयोग से ही विस्तार गति बदा।


धीरेन्द्र सिंह

29.03.2025

19.22



शुक्रवार, 28 मार्च 2025

भक्ति

 यही मेरी पूजा और धूप अगरबत्ती

आत्मा को छूँ सकूं निर्मित हो हस्ती

तुम में ही है देवत्व शून्य बोल रहा है

इंसान ही भगवान है सच ना मस्ती


हाड़-मांस ही नहीं प्राणी में झंकार है

जिंदगी गहन अनुभूति प्राणी में रचती

नयन, स्पर्श, भाव में ही जीव निभाव

कुछ इसी झुकाव में पूजा वेदी सजती


अब तक कभी न मांगा मंदिर से कुछ

मंदिर में जीव दीप्ति क्या न रचती

मूर्ति ऊर्जा को कर प्रणाम, जीव देखता

बंद नयन जुड़े हाँथ, भावना की शक्ति


ईश्वर मुझे मिलते मिल जाती देवियां

मेरी अर्चना है भौतिक आधार ना विरक्ति

जब भी खिला निमित्त रहा है कोई प्राणी

प्राणी में ईश्वर इसलिए प्राणी में अनुरक्ति।


धीरेन्द्र सिंह

29.03.2025

04.45

बुधवार, 26 मार्च 2025

लूट लिए

 कभी आंगन में बिछाकर सपने

मुझको लूट लिए मेरे ही अपने


बहुत चाह सी थी उनपर निर्भर

मेरे साथ हैं तो स्वर्णिम है घर

बड़े विश्वास से टूट गया अंगने

मुझको लूट लिए मेरे ही सपने


उमंग, तरंग, विहंग सी भावनाएं

आदर्श, सिद्धांत, समाज कामनाएं

चक्रव्यूह रच ढहा दिया भय ने

मुझको लूट लिए मेरे ही अपने


कहां थी कल्पनाएं कहां अब बताएं

किसी से क्या बोलें, क्षद्म हैं सजाए

व्यक्ति सत्य या भ्रम, यही है सबमें

मुझको लूट लिए मेरे ही अपने।


धीरेन्द्र सिंह

27.03.2025

09.01

सीखचों

 सीखचों से मैं घिरा आप क्या आजाद हैं

खींच तो हैं सब रहें पर मुआ जज्बात है


पल्लवन की आस में झूमती हैं डालियां

कलियां रहीं टूट अर्चना की तो बात है


व्यक्ति पंख फड़फड़ाता पिंजरे के भीतर

कौन कहता हर संग नभ का नात है


मनचाहा सींखचे कुछ दिन लुभाती रहें

बंधनों के दर्द में जपनाम ही नाथ है


जो बचता सींखचों से दीवाना कहलाता

जिंदगी की क्या कहें बंदगी हालात हैं।


धीरेन्द्र सिंह

27.03.2025

08.26

मंगलवार, 25 मार्च 2025

प्रसिद्धि

 यह प्रदर्शन, इस रुतबा का औचित्य क्या

प्रसिद्धि का लंबा है कहीं व्यक्तित्व क्या


कुछ तो इतिहास में जाते हैं खूब पढ़ाए

सत्य क्या है यह प्रायः समझ ना आए

एक वर्ग में लिए दर्प उंसमें निजत्व क्या

प्रसिद्धि का लंबा है कहीं व्यक्तित्व क्या


वसुधैव कुटुम्बकम में भी हैं अनेक कुनबे

शालीनता उनमें नहीं एक-दूजे को सुन बे

संबोधन, संपर्क में है बो दिया विष क्या

प्रसिद्धि का लंबा है कहीं व्यक्तित्व क्या


एक बुलबुले से उफन रहे हैं ख्याति प्रेमी

अल्पसमय में सपन हो रहे हैं चर्चित नेमी

जीवन सहज सुगंधित खोए सामीप्य क्या

प्रसिद्धि का लंबा है कहीं व्यक्तित्व क्या।


धीरेन्द्र सिंह

26.03.2025

08.07



प्रेमिकाएं

 कौंध जाती हैं हृदय की लतिकायें

कौन जाने क्या झेली हैं प्रेमिकाएं


भावनाओं का तूफान लिए चलती हैं

आंधियों में भी मासूम सी ढलती हैं

हृदय पर हैं उनकी अमिट कृतिकाएं

कौन जाने क्या झेली हैं प्रेमिकाएं


जब भी मिली अनायास अकस्मात

जैसी हों सावन की पहली बरसात

प्रणय की दिखा गईं कई शिखाएं

कौन जाने क्या झेली हैं प्रेमिकाएं


सब अकस्मात हुआ बात-बेबात सा

कब साक्षात हुआ एक पहल पा

लिखने लगा जीवन प्रेम की ऋचाएं

कौन जाने क्या झेली हैं प्रेमिकाएं


यह जग की बात नही अपनी बात

क्षद्म, धोखा कहीं ऐसे नहीं हालात

अनपेक्षित सामनाओं की वीरांगनाएं

कौन जाने क्या झेली हैं प्रेमिकाएं।


धीरेन्द्र सिंह

24.03.2025

21.19



सोमवार, 24 मार्च 2025

शब्द

 भावनाएं उन्नीस बीस अभिव्यक्ति साँच

शब्द चयन ही कौशल मन लेता बांच


शब्द के निर्धारित अर्थ शब्द न व्यर्थ

समर्थ वही लेखन कहन में ना तर्क

रचना सुंदर वही जिसके गुण हों कांच

शब्द चयन ही कौशल मन लेता बांच


भावनाओं का खिलाड़ी जो शब्द मदाड़ी

संदेश स्पष्ट सरल ना लगे वह टेढ़ी आड़ी

वाद्य की तरह शब्द रियाज कर माँज

शब्द चयन ही कौशल मन लेता बांच


भावनाएं हों प्रबल ढूंढें तब उचित शब्द

चयनित शब्द रचना करे सुखद स्तब्ध

शब्द के सामर्थ्य में भावनाओं की आंच

शब्द चयन ही कौशल मन लेता बांच।


धीरेन्द्र सिंह

25.03.2025

10.46



अदा

 अदा है या गुस्सा नहीं बोलोगी

लब पर है शबनम नहीं खोलोगी


चंचल हृदय की चंचल हैं बातें

अचल क्यों रहें तरंगे ही बाटें

यूं खामोशियों में सबब तौलोगी

लब पर है शबनम नहीं खोलोगी


संदेशों पर संदेशे हृदय ने भेजकर

कामनाओं को लपेटा है सहेजकर

दिन बीत गया सोचते अब छुलोगी

लब पर है शबनम नहीं खोलोगी


यह शबनम तो नहीं है नियंत्रण

ताकीद मृदुल क्या नहीं आमंत्रण

उलझन में कब तक यूं तलोगी

लब पर है शबनम नहीं खोलोगी।


धीरेन्द्र सिंह

23.03.2025

19.10



शनिवार, 22 मार्च 2025

लौट आए

 ब्लॉक करके भी खुल भूलते नहीं

याद आते हैं उनकी अदा तो नहीं

ब्लॉक कर दिया ढिंढोरा पीटे खूब

छपी किताबें जो वह धता तो नहीं


मास मीडिया को कर दिए निष्क्रिय

भय उनका अन्य की खता तो नहीं

अपनी गलतियों को भला देखे कौन

लहू निकला कहें कुछ किया ही नहीं


हुलसती चाहतें सब तोड़ने को आमादा

जो जोड़ा है नया उतना जंचा ही नहीं

मसखरी खरी-खरी भरती थी कड़वाहटें 

उसको छोड़ा तो लगा अब जमीं ही नहीं


लौट आए फिर साहित्य सजाने खातिर

मंच पर पीछे खड़े बात वह ही नहीं

हिंदी साहित्य के मंचों पर लौट आए

हिंदी जगत सा कहीं यह होता भी नहीं।


धीरेन्द्र सिंह

22.03.2025

17.22

बुधवार, 19 मार्च 2025

छत बगीचा

 क्या खूब क्या उत्तम है यह सोचा

मुंबई में इमारतों पर होगा बगीचा


मूल कारण है पर्यावरण का नियंत्रण

स्थान नहीं, हो कहां पर वृक्षारोपण

छत पर सुविधा से जाता रहे सींचा

मुम्बई में इमारतों पर होगा बगीचा


अस्सी की दशक तक थी कहानियां

छत पर इश्क की नव कारस्तानियां

वह दौर लौट आया चाहत ने खींचा

मुम्बई में इमारतों पर होगा बगीचा


सूर्योदय हो या कि हो चांदनी रात

हमेशा बिखरा होगा मानव जज्बात

होगी प्रतियोगिता किसने क्या खींचा

मुम्बई में इमारतों पर होगा बगीचा


चाँद भी छत पर होगा चांदनी भी

राग प्रणय होगा खिली रागिनी भी

होगी सुरक्षित जगह ना ऊंचा नीचा

मुम्बई में इमारतों पर होगा बगीचा।


धीरेन्द्र सिंह

20.03.2025

08.33



मन में

 मेरे मन में

बस्तियां बेशुमार हैं

पता नहीं चलता

कहाँ से पुकार है,

पकड़ ही लेता हूँ स्त्रोत

दूर कहीं बहुत दूर

दिखता है चाँद

नहीं भी दिखता है,

चाँद ?

चाँद ही क्यों

सूर्य क्यों नहीं ?

और सितारे भी तो हैं,

देखो न तुम भी

अगर सुन रही हो मुझे,

सुनने के लिए

कान होना जरूरी नहीं

मन से भी तो सुनते हैं,


यह मन भी न 

चलती चाकी है

दरर-दरर करता 

कब किसको पीस दे

पता ही नहीं चलता,

अच्छा एक बात बताओ

क्या मैं नहीं पिसा पड़ा हूँ ?

नहीं दोगी उत्तर

उतर चुकी हो अपने भीतर

चाँद कर रहा है प्रयास

झांकने का

और सूरज चढ़ा आ रहा है।


धीरेन्द्र सिंह

20.03.2025

07.14



मंगलवार, 18 मार्च 2025

सुनि विलियम्स

 09 महीने तेरह दिन

रहे गुरुत्वाकर्षण बिन


सुनि विलियम्स भारतीय मूल

इसीलिए मन देता उन्हें तूल

विगत हमारा अंतरिक्ष प्रवीण

रहे गुरुत्वाकर्षण बिन


नासा का यह वैज्ञानिक प्रभुत्व

हम खुश भारतीयता का प्रभुत्व

जीन प्रबल तो जीत हो अधीन

रहे गुरुत्वाकर्षण बिन


अंतरिक्ष की होंगी अनसुनी बातें

कैसा होता दिन वहां कैसी रातें

सुनीता कहेंगी बातें चुन गिन-गिन

रहे गुरुत्वाकर्षण बिन


बिन गुरुत्वाकर्षण व्यक्ति हो तिनका

खाना-पीना-सोना, शोध का 9 महीना

तन-मन सब परिवर्तित होगा तल्लीन

रहे गुरुत्वाकर्षण बिन


गुजरात की बेटी ने किया कमाल

भारत ने न्यौता दिया आओ भाल

भारत विश्वगुरु है सुनि जैसे अधीन

रहे गुरुत्वाकर्षण बिन।


धीरेन्द्र सिंह

19.03.2025

04.42

प्रतिक्रिया

 सोच रहा हूँ

अपनी रचनाओं पर

प्राप्त प्रतिक्रियाओं का

वृहद कोलाज बनाऊं

और मध्य में

बसा खुदका चित्र, फिर

जीवन का उल्लास मनाऊं,


कैसे पढ़ लेती हैं आंखें

शब्द पार्श्व के निरख सांचे

कैसे उन नयनों के प्रति

भावपूर्ण एहसास जताऊं,

लिखना तो आदत सब जैसी

भाग्य, मिली दृष्टि चितेरी

साहित्य का फाग रचाए,

निसदिन खुद को भींगता पाऊं,


कितने हैं साहित्य मर्मज्ञ

मैं तो मात्र समिधा सा,

गुंजित है वेदिका सुगंध

अनुभूति इन प्रथमा का,

अंतर्चेतना जगाते जाऊं,

तुम ना लिखती या आप कहूँ

बहुत करीब तो तुम आ जाए 😊

प्रतिक्रिया मेरा ध्यान का आसन

लेखन चेतना ऊर्जा पाऊं,


हे मेरे तुम 

तुम मुझमें और

मैं तुझमें गुम,

राह अंजोरिया

चाह नए पाता गाऊँ,

सहज नहीं प्रतिक्रिया लेखन

गूढता तक हो पैठन

भाव शब्द का ऊपर ऐंठन

ऐसा योग साहित्य समाहित

धन्य आप

नित प्रतिक्रिया पाऊं🙏


धीरेन्द्र सिंह

18.03.2025

18.10



सोमवार, 17 मार्च 2025

सखी

 वैचारिक बूंदें स्वाति नक्षत्र समान

भाव मिलन से निर्मित हो संज्ञान

अभिव्यक्तियां सृष्टि सदृश अनुगामी

कहना-सुनना भी व्यक्तिपरक विधान


इस समूह में नित सब, कुछ कहते

सबका, सब ना सुनते, देकर ध्यान

यहीं विचार प्रमुख होकर है कहता

शब्द से पहले है विचारों का रुझान


एक विषय पर एक भाव क्या लिखना

कविता है युवती चाहे भांति-भांति गहना

सजी-धजी नारी करती है ध्यानाकर्षण

अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करे निर्मित अंगना


कविता बहुत लजीली-सजीली अनुरागी

कविता आक्रामक जब हो कठिन सहना

तुमसी जैसी ही लगती है क्यों कविता

तुमको ही लिख दूं सखी फिर क्या कहना।


धीरेन्द्र सिंह

17.03.2025

22.22



रविवार, 16 मार्च 2025

हो ली

 जो लोग डर नहीं खेलते हैं होली

अभद्रता देख कहें सभ्य हो ली


आजकल आ रहे हैं कई रील

होली उत्सव या शारीरिक कील

रंगों में फसाद और गीला-गीली

अभद्रता देख कहें सभ्य हो ली


सबके मोबाइल में यही भरमार

यह कैसा है मोबाइली अत्याचार

न शालीनता न ही नटखट बोली

अभद्रता देख कहें सभ्य हो ली


ऐसे रील त्यौहार के हैं दुश्मन

प्रेम गायब कुंठित भाव प्रदर्शन

रील भ्रमित करे दूषित हमजोली

अभद्रता देख कहें सभ्य हो ली।


धीरेन्द्र सिंह

16.03.2025

12.26

शनिवार, 15 मार्च 2025

बाबा रे

 बाबा रे क्या गज़ब करते हो

बातों को कैसे लिख देते हो


अहा !

वाह !

मैं तो न कहती, बोल गईं यूं वह

मन का क्या वह जाता वहीं बह


ओहो !

रहने दो !

हा हा हा कर फिर खिलखिलाई

इसे कहते हैं जलाना दियासलाई


हम्म !

हाँ सो तो है !

बात करने से पहले सोचना होगा

पता नहीं क्या लिखो देखना होगा


अरे, गई !

बात रह गई !

आती है बतियाती और फुर्र हो जाती

ऐसे आकर रचना मुझमें है भर जाती।


धीरेन्द्र सिंह

15.03.2025

20.16



शुक्रवार, 14 मार्च 2025

होली के दिन

 होली के दिन

प्रातः 7.15 पर

उनको भेज दिया

होली संदेसा

कुल छह परिच्छेद में

निखरा-उभरा-बिखरा

मनोभाव उन्मुक्त,


इस संदेसे में

मात्र शुभकामनाएं ही नहीं

बल्कि

मनोकामनाएं भी थीं

और था हुडदंगी विचार,

टाइप पूर्ण कर जब पढ़ा

तो हुआ आश्चर्य खुद पर

इतना सब कैसे और

क्यों लिख दिया ?

चाहकर भी

नहीं कर सका डिलीट,


दोपहरी गुजर गई

पर न आया उनका उत्तर

बार-बार देखता पर

उनका संदेसा न पाया,

मुझे लगा 

शायद उन्हें बुरा लगा हो

एक भय निर्मित हुआ

और अपमान का क्रोध भी

डिलीट कर दिया संदेसा,


मुझे होली संदेसा में

नहीं लेनी चाहिए थी

अभिव्यक्ति की इतनी छूट,

खुद को कोसते रहा

होली के रंगों संग

कि उनका संदेसा आया

Happy Holi

लगा जीवनदान मिल गया,

“फेस्टिवल के दिन बहुत

काम होता है आपको पता ही है।

टाइम नहीं मिल रहा था 

रिप्लाई करने का,।“

उनका यह संदेश रंग गया

भीतर तक,


आरम्भ हुआ उनका संदेश

शब्दविहीन

इमोजी, इमेज आदि संग,

झेल न पाया वह तरंग

हाँथ जोड़ बोला 

बस अब और नहीं

मिल गए सभी रंग,

बस कीजिए न!

गिड़गिड़ाया,


शब्द बौने पड़ गए थे

इलेक्ट्रॉनिक और इंटरनेट

प्रतीक, इमेज के आगे

या कि

अभिव्यक्ति में

महिला हमेशा से

पुरुष से हैं आगे।


धीरेन्द्र सिंह

15.03.2025

07.22

गुरुवार, 13 मार्च 2025

शुभ होली

 शुभ होली -जीवन की टोली


जिसका जितना मन महका उतना बहका है

रंग होली कर धारित कई अभिनव तबका है


कुछ घर में रंगों की गुणवत्ता जांचे यूं ही

कुछ मानें हुडदंग अनियंत्रित बाहर क्यों जी

ऐसे भी होती होली जिसमें मन चहका है

रंग होली कर धारित कई अभिनव तबका है


कुछ शब्दों में भाव भर करते रहते पोस्ट

मिली प्रतिक्रिया से रंग स्मिति करते ओष्ठ

अपनी कल्पना में रंग नए वह रचता है

रंग होली कर धारित कई अभिनव तबका है


शब्द से अधिक कहीं रंगभरी मेरी हथेली है

यह रंग लगे जो परिचित, सखा, सहेली हैं

उनको दिया रचि रंग कहें दिल ना सबका है

रंग होली कर धारित कई अभिनव तबका है।


धीरेन्द्र सिंह

13.03.2025

20.51



बुधवार, 12 मार्च 2025

बाधित होली

 अबकी संभल चलिए उत्सवी टोली में

रंग-रंग तरंग लगे बाधित क्यों होली में


रंगों की यदि बात करें सर्वश्रेष्ठ तिरंगा

दीवानों-मस्तानों से बना राष्ट्रीय झंडा

तब सब रंग विहंग थे उत्सवी बोली में

रंग-रंग तरंग लगे बाधित क्यों होली में


अपनों में परिचित समूह तक है सीमा

अबीर-गुलाल उड़ान गति लागे धीमा

चौहद्दी सी रही उभर सबकी रंगोली में

रंग-रंग तरंग लगे बाधित क्यों होली में


मुट्ठीभर रंग-गुलाल से व्यक्तित्व सजाऊँ

आ मिल रंगकर होरी गाएं खुशियां लुटाऊं

होली के दिन रंग जाएं सब हमजोली में

रंग-तरंग लगे बाधित क्यों होली में।


धीरेन्द्र सिंह

12.03.2025

13.12



सोमवार, 10 मार्च 2025

ऑनलाइन रिश्ता

 कोई भाई, कोई अंकल, गुरु कोई प्रियतम

ऑनलाइन क्या हुआ रिश्तों का यह चलन


कितनी आसानी से जुड़ जाते हैं यहां लोग

व्यक्तित्व न रखें एकल हो रिश्ते का भोग

संस्कार है या संगत या असुरक्षा का दलन

ऑनलाइन क्या हुआ रिश्तों का यह चलन


व्यक्ति कहीं एकल निर्द्वंद्व नहीं है दिखता

उपनाम या विशेषण में रहता गुमसुम सिंकता

सब शीत लगें भीतर अकेले में प्रगति गलन

ऑनलाइन क्या हुआ रिश्तों का यह चलन


एक भय है समाज में हर पग पर जोखिम

व्यक्ति मिलता नहीं सम्पूर्ण खोजें दैनंदिन

स्वतंत्र व्यक्तित्व उभारे नव ऊर्जा का दहन

ऑनलाइन क्या हुआ रिश्तों का यह चलन।


धीरेन्द्र सिंह

11.03.2025

05.44

रंग

एक मीठी-मीठी मद्धम-मद्धम

सांस तुम्हारी आस दुलारे

होली आई अंग रंग लाई

उडें गुलाल विश्वास पुकारे


छू लेता रंग लगे छू गयी वफ़ा

मन अकुलाया मन कौन बुहारे

सांसे जिसको बो रहीं मद्धम

छूटा साथ रहा बंधा चौबारे


साथ नहीं पर लौट आती सांसे

साँसों से मिल गाए मन ढारे

बाग-बगीचे सी साँस सुगंध

क्यों लगता पी लिया महुवा रे


इतनी छूट कहां पर मिल पाए

हाँथ गुलाल उड़ि कपोल सँवारे

सांस-सांस बस अहसास पास

झांक-झांक रंग जमा उन द्वारे।


धीरेन्द्र सिंह

10.03.2025

13.05



रविवार, 9 मार्च 2025

कथ्य-तथ्य

 कथ्य और तथ्य की है गरिमा

तत्व और सत्य की है महिमा


कथ्य कहे क्या हुआ है कहिए

तथ्य कहे तत्व को तो समझिए

तत्व कहे घनत्व तो है मध्यमा

तत्व और सत्य की है महिमा


निजता की मांग करता है कथ्य

व्यक्ति आजकल कहां कहता तथ्य

तत्व में समाहित सामयिक रिद्धिमा

तत्व और सत्य की है महिमा


कथ्य, तथ्य, तत्व, सत्य का युग

इन्हीं चार खंभों पर पद व पदच्युत

जीवन की गति में भरते हरीतिमा

तत्व और सत्य की है महिमा।


धीरेन्द सिंह

09.03.2025

17.19




शनिवार, 8 मार्च 2025

रचनात्मकता

 रचनात्मकता लुप्त हो जाती है

जब उनके

टाईमलाइन पर होती है प्रस्तुत

दूसरों की लिखी रचनाएं,

इसका सीधा अर्थ, चुक गए हैं

प्रयास

अन्य की रचना से जगमगाएं,


रचनात्मक चापलूसी है यह

अन्यथा

एक रचनाकार श्रेष्ठ रचे

न कि

दूसरे की रचना ले बसे,


बस यही कहानी है

लेखन की रवानी है

खुद श्रेष्ठ लिख न सकें

अन्य की रचना बानी है,


एक स्वस्थ लेखन अभाव है

हिंदी लेखन रिश्ता गांव है

तू मेरी गा दे सुर में तो

और गूंजता कांव-कांव है


प्रतिभा है तो लिखिए

क्यों

दूसरों की रचनाएं हैं परोसते

कौन सी जुगाड़ू

अपनी नई राह है खोजते,


अस्वीकार है यह परंपरा

हिंदी चलन यह सिरफिरा

अपनी गति लयबद्ध रखें

शेष हैं स्थापित हराभरा।


धीरेन्द्र सिंह

09.03.2025

12.23



जबरदस्ती

 कविताएं अब

उभरती नहीं हैं

लिखी जाती हैं

शब्दों की भीड़ से,


अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस

दिनभर कविताएं

फुदकती रहीं

कभी यह समूह तो

कभी वह ग्रुप,

मौलिकता थी मद्धम

या फिर चुप,


नारी शक्ति है, ऊर्जा है

नारी भक्ति है, दुर्गा है

नारी जग का पोषण है

होता नारी का शोषण है,

प्रत्येक वर्ष इसी के इर्द-गिर्द

घूमती हैं कविताएं,

जबरदस्ती न लिखें कविता

क्योंकि चीखती है वह

रचनाकार क्यों सताए,

भला कविता को

कैसे बताएं,


जब भाव घुमड़ने लगें

अभिव्यक्ति को उमड़ने लगें

तब शब्दों से सजाएं,

कविता लिखनी है सोचकर

शब्द नहीं भटकाएं।


धीरेन्द्र सिंह

09.03.2025आ

07.32



शुक्रवार, 7 मार्च 2025

महिला दिवस

 कमनीयता केवल प्रथम शौर्य है

नारीत्व का यही सजग दौर है


मन है लचीला तन भी है लचीला

दायित्व वहन सहज मातृत्व गर्वीला

विभिन्न छटा नारी वह सिरमौर है

नारीत्व का यही सजग दौर है


प्राचीन से आधुनिकतम का युद्ध

हर युग अपने परिवेश में है शुद्ध

भविष्य खातिर पीछे करती गौर है

नारीत्व का यही सजग दौर है


प्रतिवर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस

नारी प्रगति उद्देश्य ना गिला विवश

विश्व दीप्ति में महिला नव बौर है

नारीत्व का यही सजग दौर है


अनजाने, अनचीन्हे नारी वर्ग अनेक

कुछ फोटो, कुछ नाम करते क्यों सचेत

खेत, खलिहान, मजदूरी, घर बतौर हैं

नारी का यही सजग दौर है।


धीरेन्द्र सिंह

07.02.2025

19.55



बुधवार, 5 मार्च 2025

रंग अनेक

 शब्द-शब्द अंगड़ाई है भाव-भाव अमराई

नयन रंग अनेक हैं होली आई रे आई


पहले मन रंग जमाता चुन अपने सपने

बाद युक्ति मेल सजाता दिखने और छुपने

 रंग गुलाल से प्रयास मिट जाए रुसवाई

नयन रंग अनेक हैं होली आई रे आई


अपने रंग से जुड़ा रहा कर ओ रंग संवेदी

बाजारों के दावे बहुत सजे हुए रंग भेदी

होलिका में कर दे दहन रंग बदरंग चतुराई

नयन रंग अनेक हैं होली आई रे आई


महाकुम्भ का महाडुबकी आध्यात्मिक थपकी

होली भी वही धर्म है सोच-सोच पर अटकी

रंग जाना और रंग देना ही सुपात्र बीच छाई

नयन रंग अनेक हैं होली आई रे आई।


धीरेन्द्र सिंह

06.03.2025

12.13



मंगलवार, 4 मार्च 2025

पढ़ती हैं

 आप टिप्पणी संग मुझे गढ़ती हैं

लिख लेता हूँ जो आप पढ़ती हैं


पुरुष बुरा ना मानें उनका भी हाथ

पर विपरीत लिंग हो तो साथ नाथ

एक संपूर्णता ही सृष्टि गढ़ती है

लिख लेता हूँ जो आप पढ़ती हैं


पुरुष टिप्पणी से हो बौद्धिक उड़ान

आपकी टिप्पणी का ले हृदय संज्ञान

मेरी भावनाओं में आप उड़ती हैं

लिख लेता हूँ जो आप पढ़ती हैं


पूछती अक्सर आप कैसे लिख लेता

आप ही जानती रचना की केंद्र मेधा

कविताएं पूजती भावनाएं उमड़ती हैं

लिख लेता हूँ जो आप पढ़ती हैं।


धीरेन्द्र सिंह

05.03.2025

10.00



सोमवार, 3 मार्च 2025

साड़ी

 समय उपहार मिलते चली गाड़ी

जैसे पहन खिल उठीं नई साड़ी


दृष्टि चौंक गई हृदय भी मुस्काया

रंग साड़ी का बैठने का अंदाज भाया

शालीन मुद्रा में बैठी प्रभाव जमींदारी

जैसे पहन खिल उठीं नई साड़ी


आब व्यक्तित्व या मुग्धित आकर्षण

रंग भर तरंग उमंग भर मन दर्पण

निगाहें उनकी ओर कई तिरछी आड़ी

जैसे पहन खिल उठीं नई साड़ी


वस्त्र और रंग पहनने की कला

जिसने समझा मन ही मन फला

ढाल कर खुद में बन रहीं अनाड़ी

जैसे पहन खिल उठीं नई साड़ी।


धीरेन्द्र सिंह

03.03.2025

23.40



रविवार, 2 मार्च 2025

इश्क़

 तिश्नगी तूल देती रहती हरदम

जिंदगी मांगती रहती है हमदम

कई कदम बढ़ चुके आपकी ओर

आप आशियाँ पर फहराते परचम


मेरे झंडे का एहतराम करो बोलें

एक तलाश जोर मिले हमकदम

इंसानियत बहु रंग रही अब कैसे

तपिश से भर उठी है हर शबनम


खुद को बांधना भी सामाजिक बात

बंधनों में मुस्कराता मिलता ज़मज़म

बस एक दौर हैं इम्तिहान पाकीज़गी

सच हो गयी तो हो उद्घोष बमबम


आप खुद की सीमाओं में कैद हैं

मुनासिब नहीं बयां कर दें खुशफहम

यह दौर दूर की कर रहा है समीक्षा

इश्क़ की बात करें हम कुछ सहम।


धीरेन्द्र सिंह

02.03.2025

23.06

शनिवार, 1 मार्च 2025

अजूबा शिल्पकार

 रेत के टीले पर कामनाओं का है महल

अजूबे शिल्पकार की है अभिनव पहल


कहां अब परम्पराओं की हो अनदेखी

विगत सृष्टि की अदहन हो शिलालेखी

सुगंध फिर वही ऊर्जाएं दिख रहीं धवल

अजूबे शिल्पकार की है अभिनव पहल


रेत ढह जाता है निर्माण का है विरोधी

रेत को संवारने की हो रही थी अनदेखी

क्या किया योग मुस्कराता खड़ा महल

अजूबे शिल्पकार की है अभिनव पहल


विवेक को मिले जब सकारात्मक ऊर्जा

प्यार नवः रूप खिले फहर आँचल कुर्ता

नयन भर स्वप्न रंगोली रच रही चपल

अजूबे शिल्पकार की है अभिनव पहल।


धीरेन्द्र सिंह

02.03.2025

05.25



शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

दुलार है

 वह अनुभूतियों की रंगीन गुबार है

हसरतें खिल जाएं ऐसी वह दुलार है


ऑनलाइन ही हो पाती हैं बस बातें

मैं खुली किताब ध्यान से वह बाचें

उसकी मर्यादाएं, लज्जा बेशुमार है

हसरतें खिल जाएं ऐसी वह दुलार है


उड़ ही जाता हूँ अपने रचित व्योम मेँ

देखती रहती है ठहरी वह अपने खेम में

संग उड़ जाए अविरल प्रणय पुकार है

हसरतें खिल जाएं ऐसी वह दुलार है


कितनी महीन सोचती नारी वह जतलाए

जब भी होती बातें मन मेरा जगमगाए

ऑनलाइन ही हमारे हृदयों की झंकार है

हसरतें खिल जाएं ऐसी वह दुलार है।


धीरेन्द्र सिंह

01.03.2025

04.31



गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

छपाक

 एक हल्की छप्प

कोई मछली उछली होगी

अन्यथा

यह गहरा शांत समंदर

असीम भंडार लिए

अपने अंदर

धरती की तरह

रहता है

सहज, शांत, एकाग्र,


एक हल्की स्मिति

कौंध गयी

दुबक गई अभिलाषा

नहीं की मेरी उक्त

पंक्तियों की प्रशंसा

बैठी थी

सहज, शांत, एकाग्र

रह-रहकर कौंध जाती थी

स्मिति कभी चेहरा होता या

कभी कोमल संचलन अभिव्यक्ति,


लगा कि वह बोल रही

बिन शब्द

अनुभूतियों के बयार से,

मौन तो मैं हूँ

शब्दों की भीड़ लिए,

अचानक छपाक

और

मैं उतरते चला गया।


धीरेन्द्र सिंह

27.02.2025

17.28



बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

शिवत्व

 उसी का महत्व है

जिसमे शिवत्व है

नीलकंठ कौशल

वही अस्तित्व है


मानवता श्रेष्ठ प्रेम

दूजे का कुशल क्षेम

स्व से सर्वभौम है

ऊर्जा प्रायः मौन है


प्रणय, प्रेम ही सतमार्ग

असत्य भी होते शब्दार्थ

शिव में शव कवित्व है

भस्म से जुड़ा निजत्व है


पीडाहरण भी स्वभाव 

क्रीड़ावरण भी निभाव

कर्मठता शिव घनत्व है

उसी का महत्व है।


धीरेन्द्र सिंह

27.02.2025

12.17



मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

जीत की तैयारी

 वर्तमान के व्यक्तित्व

अभिमन्यु हैं

निरंतर तोड़ते

व्यूह रचनाएं,


आक्रामक परिवेश है

परिचित अधिक

अपरिचित कम

महाभारत का परिवेश

यह ना वहम,


कितने अपने छूटे

साथ कुछ टूटे

फिर भी ना छूंछे

एक युद्ध है

मानव कहां बुद्ध है,


सपने-सपने चाह

अपने-अपने, आह!

अस्त्र-शस्त्र भिन्न

संघर्ष जारी है

जीत की तैयारी है।


धीरेन्द्र सिंह

25.02.2025

22.32



सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

देह

 नेह-नेह दृष्टि है

देह-देह सृष्टि है


मन की बात हो

भाव का नात हो

चाहत की वृष्टि है

देह-देह सृष्टि है


बातें सभी हो जाएं

देह चुप हो सुगबुगाए

देह क्या क्लिष्ट है

देह-देह सृष्टि है


रूप की बस चर्चा

शेष देह बस चरखा

नख-शिख समिष्ट है

देह-देह सृष्टि है


देह भी देवत्व है

भाव तो नेपथ्य है

देह गाथा तुष्टि है

देह-देह सृष्टि है।


धीरेन्द्र सिंह

24.02.2025

18.59