शब्दों में मोड़कर भाव छुपाए
किस तरंग की उमंग लीजिए
प्रेम बदन में ही ढूंढ रहे
ओ विहंग एक प्रबंध कीजिए
तन के धरातल भुरभुरे फिसलते
और कितना, अब रुक लीजिए
मन को देखा न पाया कभी
गौर तन पर कितना कीजिए
एक से बात दूजा प्रतीक्षा में
तीसरे पर न पांसा फेंकिए
तन के आगे न जाने तराने
मिसरे मन के भी तो देखिए
मिलते हैं अक्सर ऐसे सुख़नवर
स्वर हृदय का भी जतन कीजिए
लीजिए बुरा मान ब्लॉक कर दिए
देह से देश का क्यों हवन कीजिए।
धीरेन्द्र सिंह
05.09.2023
05.25