मन उलझी सुप्त भावनाओं को नाप चलें
गृहस्थी से जुड़े हुए कुछ दिन भाग चलें
कार्यमुक्त जब रहें मन यह उन्मुक्त रहे
क्या सोचा था क्या हैं किसे व्यक्त करें
सांसारिक दायित्वों में क्यों यह भाव तलें
गृहस्थी से जुड़े हुए कुछ दिन भाग चलें
स्वप्न और यथार्थ बीच जीवन हो चरितार्थ
स्वयं ही कृष्ण बनें आरूढ़ रथ बन पार्थ
अब थका दे रही हैं परिवेश की हलचलें
गृहस्थी से जुड़े हुए कुछ दिन भाग चलें
सुखद आवारगी हर दिल की हैं अभिलाषाएं
अल्पकालिक मनसंगत संयुक्त पतंग उड़ाएं
परिवर्तन सृष्टि गति मन परिवर्तित ले चलें
गृहस्थी से जुड़े हुए कुछ दिन भाग चलें।
धीरेन्द्र सिंह
06.08.2024
07.28