सोमवार, 5 अगस्त 2024

भाग चलें

 मन उलझी सुप्त भावनाओं को नाप चलें

गृहस्थी से जुड़े हुए कुछ दिन भाग चलें


कार्यमुक्त जब रहें मन यह उन्मुक्त रहे

क्या सोचा था क्या हैं किसे व्यक्त करें

सांसारिक दायित्वों में क्यों यह भाव तलें

गृहस्थी से जुड़े हुए कुछ दिन भाग चलें


स्वप्न और यथार्थ बीच जीवन हो चरितार्थ

स्वयं ही कृष्ण बनें आरूढ़ रथ बन पार्थ

अब थका दे रही हैं परिवेश की हलचलें

गृहस्थी से जुड़े हुए कुछ दिन भाग चलें


सुखद आवारगी हर दिल की हैं अभिलाषाएं

अल्पकालिक मनसंगत संयुक्त पतंग उड़ाएं

परिवर्तन सृष्टि गति मन परिवर्तित ले चलें

गृहस्थी से जुड़े हुए कुछ दिन भाग चलें।


धीरेन्द्र सिंह

06.08.2024

07.28




तुमको सोचा

शांत थी मेरी सुबह की सड़क 

बरस ही रहा था झूमता सावन

बहुत दूर से देखा तुम आ रही

यही होता मन मौसम हो, पावन


समुद्री हवा के छाता पर थे थपेड़े

या सोच तुमको चहक उठा सावन

मोबाइल में चाहा करूं कैद तुमको

कहां फिर मिलेगा क्षण मनभावन


सड़क पर था बूंदों का मुक्त नर्तन

सड़क थी खाली तुम्हारा था आगमन

मन की लहर पर बढ़ रहे थे कदम

तुमको सोचा और बहक खिला मन।


धीरेन्द्र सिंह

05.08.2024

15.06