शब्दों से यारी भावनाओं से मोहब्बत
भला फिर क्यों दिल को कोई सोहबत
खयालों में खिलते हैं नायाब कई पुष्प
हकीकत में गुजरते हैं लम्हें कई शुष्क
लफ़्ज़ों में लज्जा अदाओं का अभिमत
भला फिर क्यों दिल को कोई सोहबत
वक़्त बेवक्त मुसलसल जिस्म अंगड़ाईयाँ
एक कसक कि कस ले फ़िज़ा अमराइयाँ
वह मिलता है कब जब होता मन उन्मत्त
भला फिर क्यों दिल को कोई सोहबत
जब छुएं मोबाईल तब उनका नया संदेसा
लंबी छोटी बातों में अनहोनी का अंदेशा
कितना भी संभालें हो जाती है गफलत
भला फिर क्यों दिल को कोई सोहबत
बेफिक्र बेहिसाब मन डूबे दरिया-ए-शवाब
इश्क़ की सल्तनत पर बन बेगम, नवाब
एहसासों की सांसें झूमे सरगमी अदावत
भला फिर क्यों दिल को कोई सोहबत।
धीरेन्द्र सिंह
24.04.2024
10.01