सर्जना का उन्नयन हो अर्चना दे
विश्वास
आत्मा जब लेती है जकड़ अपने बाहुपाश
मन करता सर्जना लिपटाए प्रकृति
अनुराग
स्व में सृष्टि समाहित हँस करती
द्वाराचार
धरा स्वयं में हरी-भरी मिले नीला
आकाश
आत्मा जब लेती है जकड़ अपने बाहुपाश
जग लगता अवचेतन मन भीतर ही चेतन
स्पंदित, सुगंधित, समंजित है स्वधन
निपट अकेला संग जीवन खेला होता
आभास
आत्मा जब लेती है जकड़ अपने बाहुपाश
इससे बोलो उसको फोन मन जैसे हो
द्रोन
स्व मरीन अकुलाहट, बेचैनी दोषी
फिर कौन
दुनियादारी दायित्व तलक फिर अपना
आकाश
आत्मा जब लेती है जकड़ अपने बाहुपाश।
धीरेन्द्र सिंह
26.01.2024
19.19