बादलों के अश्रु से
भींगी जो बालकनी
वह फूलों को देख कर
मुस्कराते रहे
मिलन की वेदना गरजी
बिजलियाँ झलक को लपकीं
देह की सिहरनों में वह
कसमसाते रहे
कोई आ जाए ऐसे ही
समझ सर्वस्व ही अपना
प्रशंसक बीच सपना बांट
खिलखिलाते रहे
हृदय की वेदिका में
निरंतर चाह का हवन
भाव घंटियों को सुन वह
बुदबुदाते रहे
यह बादल अब भी भटके
बालकनी में बरसते
खिड़कियां बंद कर वह
झिलमिलाते रहे।
धीरेन्द्र सिंह