सोमवार, 27 दिसंबर 2021

उसकी बात

 वह कहती है

 सब सच नहीं होता

 भ्रम है सोशल मीडिया, 

मैने कहा

 इस मीडिया ने तुम्हें दिया

 लगा लगने एक दूजे को

 एक है जिया, 

झल्लाकर वह बोली

 यदि सोशल मीडिया

 लगता है सत्य

 तो गौण कथ्य

 जी लीजिए

 वहीं शर्तिया

 मानव प्रकृति 

छुपाने की 

बरगलाने  की 

कुछ दीवानी की 

कुछ दीवाने  की .


धीरेन्द्र  सिंह

गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

भाव गगरिया

 अजबक, उजबक, भाव गगरिया

लुढ़क, पुढ़क कर, गांव-नगरिया

पनिहारिन सा तृप्त, तृष्णा तट

तके लहरों की, मनमौजी डगरिया


भाव भूमि की, अभिनव ले तरंगें

टूटें किनारे पर आ, लंबी उमंगे

कितने फूटे घड़े, चांदनी अंजोरिया

अजबक, उजबक, भाव गगरिया


जल से तट या तट से जल है

किससे कौन, बना कब सबल है

हुंकार थपेड़ों के, तट वही नजरिया

अजबक, उजबक, भाव गगरिया


लहरों में रहता, प्रायः परिवर्तन

तट स्थायी, कोई ना हो आवर्तन

मजबूर चाह, राह पाने का जरिया

अजबक, उजबक, भाव गगरिया।


धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 8 दिसंबर 2021

बिपिन रावत - एक शौर्य


प्रशिक्षण महाविद्यालय को

युद्ध कौशल का

नव पाठ पढ़ाने,

नई बात बताने

चले बिपिन रावत

संग पत्नी

नव अफसर को

नव राह दिखाने,

लगी आग जब

हेलीकॉप्टर में

थे रावत बैठे

कुर्सी थी सुरक्षित

पर अर्धांगिनी भी तो

अग्नि दाह में थी मूर्छित,

भर बाहों में

कर पूर्ण प्रयास

चीख पुकार कर दरकिनार

भार्या के बन रक्षक

जीवन के अंतिम साँसों में

एक-दूजे के हो नतमस्तक,

मां भारती को

नमन जताया होगा

अग्नि प्रचंड में दबंग

हित देश की आह जताया होगा,

यह दुर्घटना भी

लिख गयी अमर कहानी

भारत के शूरवीर की जिंदगानी।


धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 2 दिसंबर 2021

सम्मान है

 मैंने तुमको पढ़ लिया

उम्मीद भर गढ़ दिया

मेरा अब क्या काम है

बस तुम्हें सम्मान है


तुम अधरों की नमीं

ज़िन्दगी की हो जमीं

शब्द भाव क्या धाम है

बस तुम्हें सम्मान है


तथ्य की तुम स्वरूप हो

मेरे जीवन की ही धूप हो

यहां न सुबह न शाम है

बस तुन्हें सम्मान है


पारदर्शिता मेरी तुम भ्रमित

मुझको समझना हुआ शमित

मेरी गलियों में गैरों का गुणगान है

बस तुम्हें सम्मान है


हृदय की उड़ान नव वितान

साथ उड़ने पर कैसा गुमान

मन की झोली में प्यार तापमान है

बस तुम्हें सम्मान है।


धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 30 नवंबर 2021

भोर की बेला

 भावों का प्रवाह है, मन भी लिए आह

भोर की बेला सजनी, जागी कैसी चाह 


चांद भी धूमिल, सूरज ओझल, सन्नाटा

कलरव अनुगूंज नहीं पर सैर सपाटा

तुम संग युग्म तरंगित, ढूंढे कोई थाह

भोर की बेला सजनी, जागी कैसी चाह


अंगड़ाई के अद्भुत तरंग, जैसी निज बातें

कितना कुछ कर दी समाहित, क्यों बाटें

दूर बहुत है, सुगम न मिलती कोई राह

भोर की बेला सजनी, जागी कैसी चाह


तुम उभरी क्या, छुप गए सूरज-चांद

रैन बसेरा कर, जागा सुप्तित उन्माद

युग्मित भाव हमारे, भरे भोर में दाह

भोर की बेला सजनी, जागी कैसी चाह।


बरखा चूमी सड़कें, दिसंबर एक माह

भोर भींगी लपकी, शीतल हवा की बांह।


धीरेन्द्र सिंह

शनिवार, 27 नवंबर 2021

तुम और चांद

 तुम आयी कि, आया चांद

आतुर छूने को, खिड़की लांघ

उचट गयी लखि यह तरुणाई

मध्य रात्रि, दिल की यह बांग


अर्धचंद्र का यह निर्मित तंत्र

संयंत्र हृदय का लेता बांध

तुमको हर्षित हो, उपमा प्रदत्त

शीतकाल में, उघड़ा चले माघ


निदिया भाग गई, लगे रूठ

जैसे तुम रूठती, प्रीत नाद

चांद की यह बरजोरी कैसी

रूठे युगल को, देता गहि कांध


चुम्बन शुभ रात्रि का लेकर

छुवन, दहन, सिहरन को फांद

चांद पहरुआ खिड़की झांके

रात्रि प्रहर अभिनव निनाद।


धीरेन्द्र सिंह

27.11.2021

रात्रि 01.30

रविवार, 21 नवंबर 2021

इंसानियत

 भावों से भावना का जब हो विवाद

तथ्य तलहटी से तब गंभीर संवाद

उचित लगे या अनुचित कृत्य वंशावली

आस्थाओं की गुम्बद से हो निनाद


धुंध भरी भोर में दब जाती रोशनी

सूरज भी ना उभर पाए ले प्रखरवाद

अपेक्षाएं चाहें सुरभित, सुगंधित सदा

संभव है क्या जी पाना बिन प्रतिवाद


प्रकृति की तरह व्यवहार लगे परिवर्तित

तथ्य रहे सदा अपरिवर्तित निर्विवाद

यह कहना कि वक़्त का है खेल यह

इंसानियत यूँ ही कब हो सकी आबाद।

धीरेन्द्र सिंह

साथ निभाना

 साथ चलना

और साथ निभाना

यह सोच

क्या लगे न बचकाना !

नवंबर के अंतिम सप्ताह में

मेरे शहर रात्रि बारिश

मेघ गर्जना

विद्युत की किलकारियां

शीतल चला पवन

कितना  विपरीत मौसम,

दिन भर शहर में उमस

शाम तका आसमान

थी बदरियों की गलबइयाँ

झूमते,लहराते बादलों के झुंड

यूँ लगे जैसे एकाकार का

प्रदर्शन श्रेष्ठ,

आजीवन साथ निभाने का वादा

हां यही तो था आसमान

बहका नहीं हूं भाव ज्यादा,

पवन की बदली गति

व्योम की पलटी मति

टकराने लगी बदरिया

ले अपनी-अपनी जल गगरिया,

गर्जन, विद्युत नर्तन

क्या अहं का था टकराव,

क्या यही आजीवन निभाव,

एक-एक कर टूट गयी

गगरिया सारी बरस गयी,

आज की बारिश ने बताया

अकेला ही चल जीवन में 

अहं का न हो छलावा

या स्वार्थ पूर्ति का शोषण,

टूट जाएगा वरना

खुद से कर खुद का पोषण।


धीरेन्द्र सिंह


बुधवार, 3 नवंबर 2021

दीपोत्सव मंगलमयी


पता नहीं क्यों

पता मिला कैसे

बस्तों को बांचते

पुरातत्व खंगालते

आरंभ पुनर्निर्माण

संस्कृति के वह द्वार

सभ्यता की पुकार

हिंदुत्व की हुंकार,

राम मंदिर;


सरयू भी उठी खिल

वर्ष 2021 से मिल

हिंदुत्व निर्विवाद

संस्कृति पर कैसा विवाद

असंख्य दीप जल उठे

प्रकाशित विश्व द्वार

दीपावली दिव्य प्रखर

अनुगूंज दिव्य अनंत,

राम मंदिर;


भारत में हिंदुत्व

हिन्दू हर भारतवासी

बहु धर्म का समझे मर्म

नव चेतना विन्यासी

बारह लाख दीपों में

शुभकामनाएं

आलोकित सब इससे

पूर्ण हों अर्चनाएं

अयोध्या जग जगमगाए,

राम मंदिर।


धीरेन्द्र सिंह

शनिवार, 16 अक्टूबर 2021

छुवन तुम्हारी

 छुवन तुम्हारी चमत्कारी एहसास है

सूखते गले में कुछ बूंदें तो टपकाईये

प्यास लिए आस वह लम्हा लगे खास

पास और पास एक विश्वास तो बनाइये


प्यार उन्माद में कभी आप तो तुम कहूँ

बहूँ अनियंत्रित भाव लहरें ना छलकाईये

मेरी मंत्रमुग्धता सुप्तता आभासित करे

जागृत जीवंत मनन आराध्य तो बन जाईये


कोमल काया को बंधनी स्पर्श दे उत्कर्ष

सहर्ष बिन सशर्त प्रेम सप्तक तो जगाइए

मेरे शब्दों में अर्चना है प्रीत धुन लिए नई

अपने स्वरों में ढाल कभी मुझे तो गुनगुनाइये।

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2021

दशहरा


दशानन का शमन

वमन हुआ वह कहकहा

यही है दशहरा


विभीषण कहें या खुफिया

विशाल शक्ति ढहाढहा

यही है दशहरा


स्वयं में है रावण

या परिवेश दे रावण, भरभरा

यही है दशहरा


अपनों में भरे रावण

धनु राम का हुंकार भरा

यही है दशहरा


एक संकल्प ले शपथ

सोच से परे दांव फरफरा

यही है दशहरा


जीवित रावण बहुरूपिया

राम तीर अग्नि सुनहरा

यही है दशहरा।


धीरेन्द्र सिंह



मंगलवार, 5 अक्टूबर 2021

भींगे ही रहें

 प्रियतम प्यारे

आप ऐसे ही भींगे रहें


भावनाओं के वलय

बूंद बन तन-मन बहें,

अर्चनाएं सघन मन

प्रभु कृपा से कहें,

मन एकात्म यूँ डिगे रहें

आप ऐसे ही भींगे रहें;


ज्ञात भी अज्ञात भी

मनभाव तथ्य यही गहें,

सर्जनाएँ प्रीत की हम

शब्दों में गहि-गहि कहें,

प्यार की राह में यूँ टिके रहें

आप ऐसे ही भींगे रहें।


धीरेन्द्र सिंह



सोमवार, 4 अक्टूबर 2021

तरंग

 तुम तर्क की कसौटी पर

हवा दिशा बहती

अद्भुत तरंग हो,

मैं

भावनाओं की गहनता में

स्पंदनों की तलहटी तलाशता

प्रयासरत

एक भंवर हूँ।


धीरेन्द्र सिंह


बुधवार, 15 सितंबर 2021

ऊर्ध्व की ओर

 आसमान में उड़ते हुए

हवाई जहाज का गर्जन

नीचे बादलों की सफेद चादर

या कहीं

अपनी मस्ती में 

अलमस्त चाल लिए टुकड़ा बादल

ले जाता है ऐसा दृश्य

कहीं दूर

ऊपर दिखते गहरे नीले

आसमान की ओर,

धरती से कहां दिख पाए सहज

इतना गहरा नीला आसमान,

हवाई जहाज का डैना

करता वायु संतुलन

न जाने कितनी गति से

बढ़ रहा गंतव्य ओर,

वायुयान में बैठ

होता है प्रतीत 

कि आसमान में 

ठहरा हुआ है जहाज

तो कभी मंथर गति से

बढ़ता अनुभव हो

यद्यपि

वायुयान का इंजन

करते रहता गर्जन

अनवरत,

शायद गति से अधिक

बोल जाती है ध्वनि

ऊंचाई छूने पर,

कहीं-कहीं यह भी लगता है

कि

धरा और व्योम को 

ढंक लिया है बादलों ने

सूर्य का तेज

हो गया है काफी मद्धम

जिससे व्योम से दिखे

चहुंओर चमकती सफेदी,

मानव तन और वायुयान

ध्वनि, गति,लक्ष्य लिए

गतिमान

ऊर्ध्व उड़ान ही दे

प्रकृति की नई पहचान,

मानव तन के लिए

धरती भी वैसी ही

जैसे वायुयान के लिए

धरती हैंगर स्थल या

संबंधित यात्रियों को समेट

उड़ान भरने की जगह,

बेवजह धरती पर 

कोई नहीं उतरता

चाहे वायुवान हो या तन 

और संभव नहीं

हर गतिशील का उड़ पाना

चाहे वाहन हो या मनुष्य

तो

उड़ान भी एक विशिष्टता है

एक कुशल संयोजन है

चाहे कल-पुर्जे हों 

या

मन के आसमान के रंग,

उड़ा जा रहा हूँ

अपनी लक्ष्य की ओर

जग समझे 

ठहरा हूँ

या मंथर गति हूँ।


11.49

इंडिगो फ्लाइट

आसमान में रचित

15.09.2021

सोमवार, 13 सितंबर 2021

आठवीं अनुसूची

 संविधान के आधार पर

क्या कर सकी राजभाषा

राष्ट्र हित उपकार ?

कहिए श्रीमान

मेरे आदरणीय 

भारत देश के नागरिक,

सार्थकता प्रश्न में है,

अर्थ उपयोगिता का है,

समस्या दिशा का है,

क्या राजभाषा हिंदी

अकुलाई दिखती है

14 सितंबर को

या

फिर

संविधान की आठवीं अनुसूची में

दर्ज समस्त भाषाएं,

ठगी खड़ी हैं 

सभी भारतीय भाषाएं,

अंग्रेजी का अश्वमेध घोड़ा

गूंज मचाते अपने टाप से

ढांक रहा है

समस्त भारतीय भाषाएं,

हाथ बढ़ रहे अनेक

पकड़ने को लगाम

पर लगाम तक पहुंचे हाथ

जाते हैं सहम,

न जाने क्यों

असुलझा है यह

यक्ष प्रश्न,

राजभाषा नीति

हंसती है, मुस्कराती है

करती है प्रोत्साहित,

चीखती है एक बार फिर

14 सितंबर को

देश की भाषिक दिशाएं,

देख भाषिक अभिनय

अधर मुस्काए, 

वक्तव्य भ्रामक, कल्पित।


धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 11 अगस्त 2021

वह

 घर लिपटा हुआ

रेंगते रहता है

हर पल

कुछ मांग लिए

कुछ उलाहने लिए

और वह

इन सबसे बतियाते

एक-एक कर

निपटाती जाती है

आवश्यक-अनावश्यक मांगें,

करती है संतुष्ट 

उलाहनों को

कर भरसक प्रयास,

अनदेखा रहता उसका प्रयास

उसके द्वारा संपादित कार्य,

थक जाती है

पर रुकती नहीं

रसोई में रखा भोजन

भूल जाती है खाना,

चबा लेती है

जो आए हाँथ

निपटाते कार्यों को,

शाम का नाश्ता

रात का भोजन

बनाती है 

रेंगती मांगें और उलाहने

तब भी रहते हैं सक्रिय,

घर में सबको खिला

न जाने कब

सो जाती है 

बिन खाए,

तुम खाई क्या

पूछे कौन बताए,

सुबह उठती है

तन पर लिए

रेंगते वही अनुभूतियां,

उसके मन भीतर भी

रेंगते रहता है गर्म छुवन

बूंद-बूंद,

घर की यही आलंबन है

चुप रहना उसका स्वावलंबन है।


धीरेन्द्र सिंह

शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

बादलों के अश्रु

 बादलों के अश्रु से

भींगी जो बालकनी

वह फूलों को देख कर

मुस्कराते रहे


मिलन की वेदना गरजी

बिजलियाँ झलक को लपकीं

देह की सिहरनों में वह

कसमसाते रहे


कोई आ जाए ऐसे ही

समझ सर्वस्व ही अपना

प्रशंसक बीच सपना बांट

खिलखिलाते रहे


हृदय की वेदिका में

निरंतर चाह का हवन

भाव घंटियों को सुन वह

बुदबुदाते रहे


यह बादल अब भी भटके

बालकनी में बरसते

खिड़कियां बंद कर वह

झिलमिलाते रहे।


धीरेन्द्र सिंह

साहित्यिक देवदासियां

 आजकल 

महफिलें नहीं जमती

गजरे की खुश्बू भरी गलियां

पान के सुगंधित मसालों की

सजी, गुनगुनाती दुकानें

और सजे-संवरे

इश्क़ के शिकारियों की

इत्र भरे जिस्म

सीढ़ियों पर नहीं लपकते,

अब नया चलन है

फेसबुक, व्हाट्सएप्प आदि

महफिलों के नए ठिकाने

इनकी भी एक नस्ल है

ढूंढना पड़ेगा

और मिल जाएंगी

मदमाती, बलखाती

लिए अदाएं

प्यासी और प्यास बुझानेवाली

पढ़ी-लिखी, धूर्त, मक्कार

आधुनिक देवदासियां,

कुछ साहित्यिक पुस्तकें पढ़

कुछ नकल कर लेती मढ़

और रिझाती हैं, बुलाती हैं,

कुछ भी टिप्पणी कीजिए

बुरा नहीं मानेंगी

बल्कि फोन कर

अपने जाल में फासेंगी,

कर लेंगी भरपूर उपयोग

फिर कर देंगी त्याग

बोलेंगी मीठा हरदम

आशय होगा"चल भाग"

आज ऐसी ही 

"साहित्यिक" देवदासियों का भी

बोलबाला है,

ऑनलाइन इश्क़ स्वार्थ सिद्धि

और बड़ा घोटाला है,

प्रबुद्ध, चेतनापूर्ण, गंभीर

महिला रचनाकार

कर रहीं गंभीर साहित्य सर्जन

कुछ "देवदासियां" अपनी महफ़िल सजा

कर रही साहित्य उपलब्धि सर्जन,

हे देवदासियों

पढ़ आग लगे जल जाइए

हिंदी साहित्य को बचाइए।


धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 21 जुलाई 2021

सर्वस्व

 तन्मय तृषित तत्व अभिलाषी

रोम-रोम पैठ करे तलाशी

सर्वस्व का सब जान लेना

सतत, निरंतर मन है प्रयासी


आंगन में अंकों की तालिका

घर में कर्मठता के प्रवासी

पट घर के सब चिपके अकुलाए

आंगन आशाओं में हताशी


ऊर्ध्व प्रगति की अनंत आकांक्षाएं

आत्मा ही आत्मा विश्वासी

सिर्फ बात यदि बातें सिमटाए

पल प्रतिपल लगे चपल मधुमासी।


धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

रहे छुपाए

 बंद करते जा रहे हैं

हर द्वार, रोशनदान

प्रत्यंचाएं खींची हुई

शर्मिंदा हृदय वितान


रहे छुपाए बच न पाए

कोई कैसे पाया संज्ञान

बंद घरों में पसरे धूल

भावनाएं छू ले मचान


राजनीति हो या जगनीति

भाए न किसी को बिहान

अंधकार, खामोशी छलके

नैया, चप्पू, लंगर, श्रीमान।


धीरेन्द्र सिंह


आत्मिक द्वंद्व

 कंकड़ लगातार

जल वलय 

डुबक ध्वनि

खुद से युद्ध

मन चितेरा।


धीरेन्द्र सिंह


सोमवार, 5 जुलाई 2021

शंकर तांडव

 गीत लिखने को गगन रहे आतुर

सज-धज कर धरा भी इठलाए

प्रकृति प्रणय है अति प्रांजल

प्रीत गीत सब रीत अकुलाए


उग सी रही मन बस बन दूर्वा

नैवेद्य वहीं बन मूक चढ़ाएं

कोमल दूर्वा झूमे पुष्परहित 

मन समझे उन्हें छू गई ऋचाएं


ग्रहण लग गया धरा को अब तो

शंकर तांडव, गगन छुप जाए

धरती लिपटी शंकर के डमरू

गगन अगन, जल मुस्काए


यही प्रकृति है प्रणय यही है

शंकर क्यों तांडव मचाएं

गीत, गगन-धरा नित की बातें

धरती चुपके से पढ़ जाए।


धीरेन्द्र सिंह

समय की वेदना

 समय की वेदना का यह अंजन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है


नियति की गोद में निर्णय ही सहारा

उड़े मन को मिले फिर वही किनारा

हृदय के दर्द का अब यही रंजन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है


हासिल कर लिए जो छूट कैसे जाए

जिंदगी ठहर गई जहां और क्यों धाए

उठो न भोर स्वागत का ले मंजन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है


सकल सुरभित वलय के गिर्द है बंधन

नयन मुग्धित मगन आभूषित करे चंदन

यह सम्प्रेषण लिए गहि-गहि क्रंदन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है।


धीरेन्द्र सिंह

चूम जाओ

 ओ मन झूम जाओ

आकर चूम जाओ


बहुत नादान है यह मन

दहन धड़कन है सघन

सावनी व्योम लाओ

आकर चूम जाओ


परिधि जीवन का है बंधन

देहरी पर सजा चंदन

मर्यादा निभाओ

आकर चूम जाओ


शमित होती हर दहन

मन को चूमता जब मन

वादे ना भुलाओ

आकर चूम जाओ।


धीरेन्द्र सिंह


ओ सगुनी

 मेरी सांस चले एहसास रुके

कोई बात है या फिर कहासुनी

तुम रूठ गई हो क्यों तो कहो

सर्वस्व मेरी कहो ओ सगुनी


निस्पंद है मन लूटा मेरा धन

दिल कहता है मेरी अर्धांगिनी

एक रिश्ता बनाया प्रकृति जिसे

खामोश हो क्यों प्रिए अनमनी


पग चलते हैं तुम ओर सदा

राहों ने खामोशी क्यों है बुनी

पत्ते भी हैं मुरझाए उदास से

बगिया की मालन लगे अनसुनी।


धीरेन्द्र सिंह


हम ही तुम थे

 किसी को छोड़ देना भी 

सहज आसान इतना कि

जैसे दीप जल में प्रवाहित 

कामनाओं के,

लहरें जिंदगी की खींच ले जाती हैं 

मन दीपक

छुवन की लौ है ढहती 

जल गर्जनाओं के,

हम ही तुम थे 

कि बाती दीप सजाए

तपिश बाती में धुआं भ्रमित 

अर्चनाओं के।


धीरेन्द्र सिंह

रविवार, 4 जुलाई 2021

बाधित सम्प्रेषण

 शाम हसरतों की कर रही शुमारी

और गहरी हो रही फिर वही खुमारी

एक अकेले लिए चाहतों के मेले

कैसे बना देता है वक़्त खुद का मदारी


प्रणय का प्रयोजन हो शाम को मुखर

ऐसे लगे जैसे अटकी कोई है देनदारी

सम्प्रेषण हो बाधित कैसे भाव वहां पहुंचे

काव्य में समेटें अभिव्यक्तियाँ यही समझदारी।


धीरेन्द्र सिंह


शनिवार, 3 जुलाई 2021

कब बोलोगी

 चाहत की धीमी आंच पर

इंसान भी सिजता है,

तथ्य है सत्य है

आजीवन न डिगता है,

चाहत कब झुलसाती है

नैपथ्य बस सिंकता है,

कब बोलोगी इसी का इन्तजार

मन रोज तुमको ही लिखता है।


धीरेन्द्र सिंह

शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

खंडित अभिव्यक्तियाँ

 उन्मुक्त अभिव्यक्तियाँ

न तो समाज में

न साहित्य में,

नियंत्रण का दायरा

हर परिवेश में,

सभ्य और सुसंस्कृत

दिखने की चाह

घोंटती उन्मुक्तता

छवि आवेश में,

खंडित अभिव्यक्तियाँ

उन्मुक्तता के दरमियां

भावनाओं को कर रहीं

कुंठित,

मानव तन-मन अब

अंग-खंड आबंटित।


धीरेन्द्र सिंह


रिक्त अंजुल

 मर्यादित जीवन 

बदलता है केंचुल

एक चमकीली आभा खातिर,

इंसानियत का प्यार

रिक्त अंजुल

उलीचता रहता है अख्तियार

बनकर शातिर,

दौड़ने का भ्रम लिए

यह रेंगती जिंदगी।


धीरेन्द्र सिंह


अजगर शाम

 शाम अजगर की तरह

समेट रही परिवेश

निगल गई

कई हसरतें,

आवारगी बेखबर

रचाए चाह की

नई कसरतें।


धीरेन्द्र सिंह

02.07.2021

शाम 06.17

लखनऊ

शाम का छल

 शाम अपनी जुल्फों में

लिए पुष्प सुगंध

हवा को करती शीतल

क्या दुलारती है सबको,

शाम करती है छल

 निस दिन अथक

तोड़ती है भावनात्मक बंधन

दे अन्य के भावों का चंदन,

त्याग देती है

पुराने हो चुके को

नए से कर निबंधन,

अब शाम

नहीं रही पहले जैसी

अक्सर बोले

वादे और जिंदगी की

ऐसी-तैसी,

शाम अकुलाई है

नए को पाई

पुराने को ठुकराई है,

नहीं बीतती अब शामें

बहकी-बहकी बातों में

प्रणय अचंभित लड़खड़ाए

स्वार्थ सिद्ध के नातों में।


धीरेन्द्र सिंह

02.07.2021

शाम 06.40

लखनोए।


गुरुवार, 1 जुलाई 2021

तुम

 तुम नयनों का प्रच्छा लन हो

तुम अधरों का संचालन हो

हृदय तरंगित रहे उमंगित

ऐसे सुरभित गति चालन हो


संवाद तुम्हीं उन्माद तुम्हीं

मनोभावों की प्रतिपालन हो

जिज्ञासा तुम्हीं प्रत्याशा तुम्हीं

रचनाओं की नित पालन हो


कैसे कह देती वह चाह नहीं

हर आह की तुम ही लालन हो 

हर रंग तुम्हीं कोमल ढंग तुम्हीं

नव रतिबंध लिए मेरी मालन हो।


धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 29 जून 2021

व्हाट्सएप्प की नगरवधुएं


वह व्हाट्सएप्प पर

सक्रिय रहती है

प्रायः द्विअर्थी बातें

लिखती हैं 

और चले आते हैं

उसके चयनित पुरुष

टिप्पणियों में

रुग्ण यौन वर्जनाओं के 

लिए शब्द

जिसपर वह अवश्य चिपकाती है

अपनी मुस्कराहट

एक रूमानी आहट,

कोई कुछ भी बोल जाए

उसे फर्क नहीं पड़ता

जिसे चाहती है वही

उसके व्हाट्सएप्प में रहता,

पुस्तकें हैं उसे मिलती

चयनित पुरुषों के

प्रेम और यौन उन्माद की

कथाओं की पुस्तकें,

सभी पुरुष होते हैं

तथाकथित साहित्यिक

छपाए पुस्तकें

अपने पैसों से

खूब होती है गुटरगूं

इन नकलची लेखक जैसों में,

हिंदी लेखन की मौलिकता

कुचल रहीं यह नगरवधुएं

यदि मौका मिले तो पढ़िए

कैसे हैं पुरुष इन्हें छुए।


धीरेन्द्र सिंह


शुक्रवार, 25 जून 2021

तड़पे प्यास

 यह उम्र गलीचा

वह मखमली एहसास

समंदर ने कब कहा

पानी में तड़पे प्यास।


धीरेन्द्र सिंह


वह आई थी

वह आई थी
 हथेलियों में भर भावनाएं 
मिलकर उसे पुष्प बना दिए 
उसने कहा
 इन फूलों से सजाना है आसमान 
मैंने कहा बड़ा है व्योम से 
मन का आकाश बसा दो 
अपनी फुलवारी 
वह नहीं मानी 
भौरों के झुंड में 
तलाशने लगी आसमान। 

 धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 23 जून 2021

प्यार मर गया

 प्यार 

कोरोना काल में

काल कवलित,

दिलजलों ने कहा

कैसे मरा,

स्वाभाविक मृत्यु

या मारा किसी ने,

कौन समझाए

प्यार मरता है

अपनी स्वाभाविक मृत्यु

भला 

कौन मार सका ,

प्यार तो प्यार

कुछ कहें

एहसासी तो कुछ आभासी,

भला

कौन समझाए

दूर हो या पास

होता है प्यार उद्गगम

एहसास के आभास से,

मर गया

स्मृतियों के बांस पर लेटा

वायदों का ओढ़े कफन

उफ्फ़ कितना था जतन।


धीरेन्द्र सिंह


सोमवार, 21 जून 2021

टहनियां

 डालियां टूट जाती हैं

लचकती हैं हंस टहनियां

आप समझे हैं समझिए

कैसी इश्क की नादानियां


एक बौराई हवा छेड़ गई

पत्तों में उभरने लगी कहानियां

टहनियां झूम उठी प्रफुल्लित

डालियों में चर्चा दिवानियां


गुलाब ही नहीं कई फूल झूमे

फलों को भी देती हैं टहनियां

डालियां लचक खोई ताकती

गौरैया आए चहक करे रूमानियां।


धीरेन्द्र सिंह

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस

 अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस आज

होता सहज नहीं विश्वास

कल तक अनदेखी विद्या का

आज सकल सिद्ध है राज


योगी रामदेव की महिमा मुस्काए

एक चना का है यह अंदाज

एक ब्रह्म एक ही आत्मा एकं अहं

विस्मित निरखे परवाज


अथक परिश्रम अथक सहयोग

फला_फूला विस्तृत हुआ योग

भारत विश्व योग गुरु बन स्थापित

संचालित नित घर_घर यह योग।


धीरेन्द्र सिंह

शनिवार, 19 जून 2021

फेसबुकिया बीमारी

 मैं नहीं जा पाता हूं

सबकी पोस्ट पर

देने अपनी हाजिरी

कभी टिप्पणियां

अक्सर लाइक,

यह भीड़ तंत्र

साहित्य की 

फेसबुकिया बीमारी है

कल तुमने किया लाइक

तो आज मेरी बारी है,

मन की रिक्तता

नहीं होती जब संतुष्ट

भावों को अभिव्यक्ति दे

तब भागता है मन

भीड़ की ओर

लोग आएं और मचाएं

निभावदारी का शोर,

नहीं गाता हूं 

दूसरों के लिए

बेमन गाने, टिप्पणियां, लाइक

भ्रमित प्रशंसा काल में

साहित्य की धूनी

बुला लेती है खुद ब खुद

समय के एक भाग को।


धीरेन्द्र सिंह


मेरी सर्वस्व

 प्यार उजियारा पथ, डगर दर्शाए

आपकी रोशनी से जिंदगी नहाई है

तृषित न रह गई तृष्णा कोई अपूर्ण

तृप्ति भी आकर यहां लगे शरमाई है

 

पथरीली राहें थीं कंकड़ीली डगरिया

बनकर मखमल तलवों तक पहुंच आई है

ऐसी शख्सियत मिलती भला कहां

चांदनी भी है और अरुणाई है


रुधिर के कणों में डी एन ए तुम्हारा भी

खानदानी बारिश सा तुम भिंगाई हो

तुम्हें सर्वस्व कह दिया तो सच ही कहा

संपूर्णता संवरती तुम्हारी जगदाई है।


धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 16 जून 2021

विश्लेषक

 शर्तें तुम्हारी होती थीं

बालहठ मेरा

तुम विश्लेषक रिश्ते

मैं एक चितेरा,

कलरव की संध्या बेला में

अनगढ़ दृश्य बिखेरा

समूह में लौटते पक्षी

देते दार्शनिक टेरा,

मनगढ़ जीवन ऊबड़_खाबड़

निर्धारित ही है बसेरा,

भ्रमित भाग्य या कर्म उन्मत्त

क्या ले जाए मेरा,

जिसकी बगिया वही है माली

बेहतर मेरा डेरा।


धीरेन्द्र सिंह


मंगलवार, 15 जून 2021

छल

बहुत अनुराग था 

हां प्यार था 

दिल भी कहता है 

वह यार था;

पर प्रसिद्धि की थी भूखी 

रिश्तों से विराग था 

पर अंदाज उसके 

जिसमें नव पराग था; 

जीवन की प्रत्यांचाएं 

लक्ष्य से अनुराग था 

बहुत पाना चर्चित हो जाना 

यह भी एक शबाब था; 

प्रियतम से अपने कामा 

फिर पूर्णविराम ताब था 

कई लोगों से करती गुफ्तगू 

उसके प्यार का यही आब था।


धीरेन्द्र सिंह









 

सोमवार, 14 जून 2021

दूजे से बतियाती है

 पहला न करे फोन जुगत यह लगाती है

पहले को ब्लॉक कर दूजे से बतियाती है


सोशल मीडिया पर साहित्य प्रेम गांव

कुछ न कुछ लिखते सब इसके छांव

लिख उन्मुक्त चाह भरमाती बुलाती है

पहले को ब्लॉक कर दूजे से बतियाती है


घर में करे सवाल तो कहें साहित्य चर्चा

पैसे लगा प्रकाशित पुस्तकों पर चर्चा

कभी मैसेंजर, कभी व्हाट्सएप चलाती है

पहले को ब्लॉक कर दूजे से बतियाती है


कर देती अनब्लॉक पहले प्रेमी से बतियाए

रिश्तेदार का कॉल था झूठ पालना झुलाए

अपने चटखिले पोस्ट उससे हाइड कर जाती है

पहले को ब्लॉक कर दूजे से बतियाती है


फिर गोष्ठियों का जुगाड से हो आयोजन

कभी चाय के आगे न खाने का आयोजन

नयन अठखेलियों में छुवन खिलखिलाती है

पहले को ब्लॉक कर दूजे से बतियाती है।


धीरेन्द्र सिंह

घातक कई नारी

 चूस लो यूं जूस लो स्वार्थी हितकारी

सम्मान के प्रलोभन में घातक कई नारी


काव्य लेखन सीखना या कि गद्य लेखन

बोलती शिक्षित हैं पर अब तक संग बेलन

इस विनम्रता पर कहां दिखे भला कटारी

सम्मान के प्रलोभन में घातक कई नारी


महिलाएं भी बन रहीं उन्मुक्त सुजान

कुछ की चाहिए शीघ्र ऊंचा एक मचान

इस लक्ष्य में कहीं विनम्रता तो सिसकारी

सम्मान के प्रलोभन में घातक कई नारी


झूठ है अबला मन की कोमलांगिनी

सत्य यह कि वह प्रचंड सिंहासिनी

वर्चस्वता में प्रखर चाह गज पर सवारी

सम्मान के प्रलोभन में घातक कई नारी


शब्द से भाव गहूं यह तो समुद्र मंथन

विष भी पिलाएं वैसे जैसे लगाएं चंदन

षोडशी सी अदाएं बच्चों की महतारी

सम्मान के प्रलोभन में घातक कई नारी।


धीरेन्द्र सिंह






शनिवार, 12 जून 2021

गीत लिखे

गीत लिखो कोई भाव सरणी बहे
मन की अदाओं को वैतरणी मिले
यह क्या कि तर्क से जिंदगी कस रहे
धड़कनों से राग कोई वरणी मिले

अतुकांत लिखने में फिसलने का डर
तर्कों से इंसानियत के पिघलने का डर
गीत एक तरन्नुम हम_तुम का सिलसिले
नाजुक खयालों में फूलों के नव काफिले

एक प्रश्न करती है फिर प्रश्न नए भरती
अतुकांत रचनाएं भी गीतों से संवरती
विवाद नहीं मनोभावों में अंदाज खिलमिले
गीत अब मिलते कहां अतुकान्त में गिले।

धीरेन्द्र सिंह

सोमवार, 4 जनवरी 2021

उसकी आवारगी

उसकी आवारगी भी कितनी बेमिसाल है
 देख जिसे तितलियां भी हुई बेहाल हैं
 उसकी ज़िद भी उसकी ज़िन्दगी सी लगे 
घेरे परिवेश उलझे आसमां की तलाश है;

 उन्मुक्त करती है टिप्पणियां चुने लोगों पर 
बात पुख्ता हो इमोजी की भी ताल है
 सामान्य लेखन पर भी दे इतराते शब्द खूब 
साहित्यिक गुटबंदी में पहचान, मलाल है;

 एक से प्यार का नाटक लगे उपयोगी जब
 दूजा लगे आकर्षक तो बढ़ता उसका जाल है 
एक पर तोहमत लगाकर गुर्राए दे चेतावनी
 जिस तरह नए को बचाए उसका कमाल है;

 गिर रहा स्तर ऐसे साहित्य और भाषा का भी 
प्यार के झूले पर समूहों का मचा जंजाल है 
शब्द से ज्यादा भौतिक रूप पर केंद्रित लेखन
 उसकी चतुराई भी लेखन का इश्किया गुलाल है। 

धीरेन्द्र सिंह