बुधवार, 11 अक्टूबर 2023

साँसों की अलगनी

 साँसों की अलगनी भवनाओं का जोर

अभिलाषाएं संचित चलन का है दौर


अबाधित सांस है उल्लसित आस है

पास हो हरदम कहे टूटता विश्वास है

निगरानी में ही संपर्क रचा है तौर

अभिलाषाएं संचित चलन का है दौर


यह चलन, चाल-चरित्र का है हवन

यह बदन, ढाल-कवित्व का है सदन

उभरती हर कामना को है देता ठौर

अभिलाषाएं संचित चलन का है दौर


प्रौद्योगिक संपर्क के साधन हैं विशाल

एक तरफ आलाप दूसरी तरफ है तान

गान में वर्जनाओं का है सज्जित मौर

अभिलाषाएं संचित चलन का है दौर


जब चाहे जिसके साथ कदम दर कदम

संग में उमंग किसी को ना हो वहम

मन ना लगे ब्लॉक का है आखिरी कौर

अभिलाषाएं संचित चलन का है दौर।


धीरेन्द्र सिंह

12.10.2023

04.35

चांद बांचता

 चांद देखा झांकता भोर में बांचता

रात भर कुछ सोचता रहा जागता


ग्रह-नक्षत्र से जग भाग्य है संचालित

सूर्य-चांद से जीव-जंतु है चालित

कौन सी ऊर्जा चांद निरंतर है डालता

रात भर कुछ सोचता रहा जागता


आ ही जाता चांद झांकता बाल्कनी

छा ही जाता मंद करता भूमि रोशनी

तारों से छुपते-छुपाते मन को टांगता

रात भर कुछ सोचता रहा जागता


यूं ना सोचें चांद का यही तौर है

चांदनी बिना कैसा चांद का दौर है

कह रहा है चांद या कुछ है मांगता

रात भर कुछ सोचता रहा जागता।


धीरेन्द्र सिंह


12.10.2023

05.53