शुक्रवार, 29 नवंबर 2024

कौन लिख रहा

 कौन लिख रहा वर्तमान जो कहे

प्यार की गोद में लेखक हैं पड़े


व्यथा प्यार की, पीड़ा बिछोह का

कथा यार की, बीड़ा न मोह का

प्यार विशाल बतलाते मानव ढहे

प्यार की गोद में लेखक हैं पड़े


या तो भूत भाव या हैं कल्पनाएं

सपूत कीर्ति छांव कोई न बतलाए

झुरमुट तले खरगोश बंद दृष्टि पड़े

प्यार की गोद में लेखक हैं पड़े


शौर्य नहीं शक्ति नहीं न तो जाबांजी

चॉकलेटी चेहरा लिए बस हो इश्कबाजी

पांव अथक चल रहे छोड़कर धड़े

प्यार की गोद में लेखक हैं पड़े।


धीरेन्द्र सिंह

29.11.2024

16.51


बुधवार, 27 नवंबर 2024

कौन बड़ा

 दिल कूद सामने बेचैन खड़ा हो गया

पूछ बैठा प्यार से कौन बड़ा हो गया


विश्व में जनित नव प्यार परिभाषा

सत्य में घटित भाव श्रृंगार तमाशा

संवेदना का तार टूटा धड़ा हो गया

पूछ बैठा प्यार से कौन बड़ा हो गया


व्योम और धरा का है पारस्परिक यार

स्थापित को झुठलाने के हैं कई प्रकार

प्यार बौना हो रहा स्वार्थ मढ़ा ओ गया

पूछ बैठा प्यार से कौन बड़ा हो गया


दिल दुखी पूछ बैठा यह क्या प्रकार है

अवसरवादी प्यार हुआ क्या मनोविकार है

विकल्प बेशुमार ले मन कड़ा हो गया

पूछ बैठा प्यार से कौन बड़ा हो गया।


धीरेन्द्र सिंह

28.11.2024

05.53


मंगलवार, 26 नवंबर 2024

बोरसी

 कुछ अलग - भाषा, संस्कृति, अभिव्यक्ति :-


काठ छुईं जांत छुई जड़वत कड़ाका

बोरसी से ठेहुन लगल मिलल पड़ाका


रजाई से देह निकलल भयल तमाशा

अंगुरी-कान चुए लागल पानी क बताशा

काँपत देंह जापत जीभ नाक सुन सड़ाका

बोरसी से ठेहुन लगल मिलल पड़ाका


गोबर-गोइठा सानी पानी जाड़ा क कहानी

चूल्हा-चौका चाय-पानी इहे गांव जवानी

लकड़ी, गोईंठा, बोरसी आग फूटे देह धड़ाका

बोरसी से ठेहुन लगल मिलल पड़ाका।


धीरेन्द्र सिंह

26.11.2024

17.20

सोमवार, 25 नवंबर 2024

ओस

 ओस ठहरी हुई है 

पंखुड़ी पर

यह उसका है भाग्य,

वह दूब, धरा समाई

अनजाने में

जीवन भी है कितना साध्य,


पंखुड़ी, दूब, धरा आदि

कोमल शीतलता पगुराए

पवन झकोरा उन्मादी

ओस चुहल की उत्पाती

इधर चले

कभी उधर चले

जैसे तुम्हारे नयन

पलक ओस समाए,

पवन सरीखा हम बौराए,


गिरती ओस में

सिमट आती है तुम्हारी सोच

और मन करता है प्रयास

पंखुड़ी, दूब, धरा आदि

बन जाना

पर होता कब है

जीवन को जी पाना मनमाना,


हवाएं सर्द चल रही हैं

ओस की शीतलता चुराए

राह पर कुहरा है

धीमा गतिशील जीवन है

जैसे

लचक रही हो टहनी

झूल रही हो ओस

और तुम संग लचकती

सिहरन भरी यह सोच।


धीरेन्द्र सिंह

26.11.2024

05.05




रविवार, 24 नवंबर 2024

आत्मा की भूख

 आत्मा की भूख जब भी हुंकार भरे

क्यों न जीवन फिर किसी से प्यार करे


प्यार परिणय में मिले क्या है जरूरी

सामाजिकता संस्कृति की होती धूरी

वलय की परिक्रमाएं वही धार रहे

क्यों न जीवन फिर किसी से प्यार करे


यूं किसी से प्यार हो जाना असंभव

तार मन के जुड़ भरें निखार रच भव

एक धुआं दिल उठे लौ की पुकार करे

क्यों न जीवन फिर किसी से प्यार करे


प्रौद्योगिकी है देती प्रायः नव धुकधुकी

खींच लेता भय मन चाह लगाए डुबकी

अपना मन जब असीमित दुलार भरे

क्यों न जीवन फिर किसी से प्यार करे।


धीरेन्द्र सिंह

25.11.2024

08.46




शनिवार, 23 नवंबर 2024

जरूरी होना

 अचरज, सारथ, समदल संजोना

जरूरी होता है जरूरी होना


अब जग है सूचना संचारित

इंटरनेट पर है सकल आधारित

होता पल्लवित बस है बोना

जरूरी होता है जरूरी होना


अपना मूल्य जो करे निर्धारित

प्रायःसभा में नाम उसका पारित

छवि महान योग्यता लगे बौना

जरूरी होता है जरूरी होना


प्रबंधन शिक्षा न सिखला पाए

अनुभव दीक्षा से पाया जाए

खाट ठाठ से पहले बिछौना

जरूरी होता है जरूरी होना


तर्क, तथ्य का पथ्य जो धाए

धावत-धावत बस दावत पाए

चाहत, चुगली, चाटुकारिता डैना

जरूरी होता है जरूरी होना।


धीरेन्द्र सिंह

24.11.2024

09.10




शुक्रवार, 22 नवंबर 2024

साहित्य

 साहित्य जब से स्टेडियम का प्यास हो गया

धनाढ्य वर्ग का साहित्य तब घास हो गया


विश्वविद्यालय सभागार में खिलती संगोष्ठियां

महाविद्यालय कर स्वीकार करती थीं युक्तियां

यह दौर गलेबाजों युक्तिकारों का खास हो गया

धनाढ्य वर्ग का साहित्य तब घास हो गया


साहित्य का अब विभिन्न बाजार बन गया

बिकता जो है उसका तय खरीददार धन नया

पुरानी रचनाओं का जबसे विपणन आस हो गया

धनाढ्य वर्ग का साहित्य तब घास हो गया


सब हैं लिखते छपने, बिकने पुरस्कार के लिए

अंग्रेजी भाषा की लड़ियाँ हिंदी के टिमटिमाते दिए

रचनाकार तले रचनाओं का फांस हो गया

धनाढ्य वर्ग का साहित्य तब घास हो गया


मॉल मल्टीप्लेक्स में एक संग कई फिल्में

इसी धुन पर स्टेडियम में साहित्य फड़कें

एकसंग कई प्रस्तुति साहित्य तलाश हो गया

धनाढ्य वर्ग का साहित्य तब घास हो गया।


धीरेन्द्र सिंह

22.11.2024

15.13



गुरुवार, 21 नवंबर 2024

रचना

 अति संवेदनशील पुरुष

जब कला के किसी विधा की

करता है रचना 

तब प्रमुख होती है नारी

उसके मन-मस्तिष्क में

बनकर सर्जना की ऊर्जा,


संवेदनाओं की तलहटी में

नहीं पहुंच सकता पुरुष

बिना नारी भाव के,

यदि साहस भी करे तो

रचता है उबड़-खाबड़

तर्क और विवेक मिश्रित

ठूंठ भाव,


पुरुष जब करता है

लोक कला का सृजन

मूल में संजोए

नारी भाव

तब निखर उठती है

एक मौलिक रचना

और अपनी पूर्णता पर

हो खुश

रचना हाँथ मिलाती है

अपने सर्जक से,


प्रत्येक रचना होती है

नारी तुल्य गहन, विस्तृत

जीवंत और व्यवहारकुशल

प्रति पल।


धीरेन्द्र सिंह

21.11.2024

23.05




बुधवार, 20 नवंबर 2024

अच्छा दिखना

 कैसी हो

मन ने कहा

तो पूछ लिया,

तुरंत उनका उत्तर आया

ठीक हूँ, आप कैसे हैं,

बहुत अच्छा लगा 

आपका मैसेज पढ़कर,

अभी अमेरिका में हूँ

वह बोलीं;


मेरी परिचितों में

सबसे सुंदर दिखनेवाली

मित्र हैं मेरी,

अपने व्यक्तित्व को

नहीं आता प्रस्तुत करना

सबको,

यह निष्णात हैं

निगाहों को स्वयं पर

स्थिर रखने का 

कौशल लिए;


जीवन की

लंबी बातचीत बाद

वह बोलीं

“मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है 

अच्छा दिखना, सेल्फी लगाना

 अच्छा पहनना, 

पता नहीं उससे कब उबर पाऊंगी”

मैंने टाइप किया

“कितनों को आता है अच्छा दिखना

अपने आप को जो जानता है,

 अपने को प्यार करता है 

वही स्वयं को संवार सकता है,

 इसे मत छोड़िएगा क्योंकि

 यह अभिव्यक्ति है आपकी

 यह आपकी अपने स्व की पूजा है”


उसने मुस्कराहट भेज दी

इमोजी संग और बोली

“सेल्फी तो लगते ही इसलिए कि 

लोग देखे तो, 

कोई शिकायत ही नहीं है किसी से”

कहां मिल पाता है ऐसा

उन्मुक्त विचार और सर्जना, प्रायः,

वह टाइप की

“चलिए शुभ रात्रि 

आपके यहां रात हो गई 

हमारी सुबह है”


नारी के इस व्यक्तित्व में 

घूमती रही कविता

और शब्द उभारने लगे

अपने विविध गूढ़ भाव

और जिंदगी

देखती रही मुझे।


धीरेन्द्र सिंह

20.11.2024

21.09




मंगलवार, 19 नवंबर 2024

नगाड़ा

 जिसका जितना सहज नगाड़ा

उसका उतना सजग अखाड़ा


प्रचार, प्रसार, विचार उद्वेलन

घर निर्माण संग चौका बेलन

भीड़ जुटाएं सिखाएं पहाड़ा

उसका उतना सहज अखाड़ा


अक्कड़-बक्कड़ बॉम्बे खो

दिल्ली, बंगलुरू संजो तो

बनाए कम अधिक बिगाड़ा

उसका उतना सहज अखाड़ा


हिंदी की हैं दुकान सजाए

अभिमान प्रतिमान बनाए

बेसरगमी बेसुरा लिए बाड़ा

उसका उतना सहज अखाड़ा।


धीरेन्द्र सिंह

19.11.2024

19.29


सोमवार, 18 नवंबर 2024

सर्द पंक्तियां

 सर्द-सर्द पंक्तियां

क्यों हमारे दर्मियाँ


चाह की चाय

आह की चुस्कियां

गर्माहट मंद हुई

क्यों हमारे दर्मियाँ


सर्द-सर्द पंक्तियां

क्यों हमारे दर्मियाँ


कौतूहल चपल है

कयास की सरगर्मियां

फुँकनी लील गया करेजा

क्यों हमारे दर्मियाँ


सर्द-सर्द पंक्तियां

क्यों हमारे दर्मियाँ


मनभर लोटा दिए उलीच

चाह कटोरा रिक्तियां

सजल सत्यकाम अनाम

क्यों हनारे दर्मियाँ


सर्द-सर्द पंक्तियां

क्यों हमारे दर्मियाँ।


धीरेन्द्र सिंह

18.11.2024

10.47



रविवार, 17 नवंबर 2024

सर्दी

 सर्दियों की दस्तक है

गर्माहट ही समीक्षक है

मौसम के कई प्रश्नपत्र

सिहरन बनी अधीक्षक है


सर्द हवाएं त्वचा बेचैन

गर्म वस्त्र लकदक हैं

दिन पीछे आगे रात

रसोई भी भौंचक है


गर्म चुस्कियां विधा अनेक

नर्म गर्म ही रक्षक है

धुंध, कुहासे दूध बताशे

वाहन लाइट कचकच है


चेहरा अधर क्रीम भरा

भूख लगे भक्षक है

श्रृंगार की धार फुहार

अधर-अधर अक्षत है।


धीरेन्द्र सिंह

17.11.2024

20.11


शनिवार, 16 नवंबर 2024

नेतृत्व

 नेतृत्व -  नेतृत्व


विश्वमयी मानव तत्व

पर छाते अंधियारे

विश्व किसको डांटे

कुनबा-कुनबा निज अस्तित्व,

नेतृत्व-नेतृत्व


युद्ध कहीं चल रहा

कहीं आस्था परिवर्तन

लगाम लगा न पाए कोई

निरंतर हो परिवर्तन

कैसे-कैसे खुले-बंद हैं कृतित्व,

नेतृत्व-नेतृत्व


कोख कहीं सौम्य सरल

कोख कहीं अति सक्रिय

जात-धर्म की चर्चा है

शूद्र, वैश्य, पंडित, क्षत्रीय

कहा किसका कैसे गिनें घनत्व,

नेतृत्व-नेतृत्व


एक विवेकी असमर्थ हो जाता

विपक्ष में जो हो अविवेकी

कर्म से कोई भाग्य रचता

कोई रचता आक्रामकता खेती

मानवता करे गुहार स्थूल न हो द्रव्य,

नेतृत्व-नेतृत्व


वसुधैव कुटुम्बकम विश्व भाल

सत्य है नहीं वहम, जीवन पाल

भारतीय संस्कृति अति विशाल

हमेशा चाहती विश्व सुख ताल

मानवता चाहती विनम्रता सत्व,

नेतृत्व-नेतृत्व।


धीरेन्द्र सिंह

16.11.2024

12.51



बुधवार, 13 नवंबर 2024

यद्यपि

 यद्यपि तुम तथापि किन्तु

वेगवान मन कितने हैं जंतु


विकल्प हमेशा रहता सक्रिय

लेन-देन भावना अति प्रिय

आकांक्षाओं के अविरल तंतु

वेगवान मन कितने हैं जंतु


जड़ अचल झूमती डालियाँ

एक घर, हैं अनेक गलियां

व्यग्रता व्यूह निरखता मंजू

वेगवान मन कितने हैं जंतु


अपने को अपने से छुपाना

खुद से खुद का बहाना

जकड़न, अकड़न तड़पन घुमंतु

वेगवान मन कितने हैं जंतु।


धीरेन्द्र सिंह

14.11.2024

08.28



सोमवार, 11 नवंबर 2024

तल्लीन

 तल्लीन

सब हैं

अपने-अपने

स्वप्न संजोए

कुछ बोए, कुछ खोए;


खींचते जा रहा जीवन

परिवर्तित करते

कभी मार्ग कभी भाग्य

झरोखे से आती संभावनाएं

छल रही

दशकों से डुबोए,


मन को लगते आघात

देते तोड़ जज्बात

बात-बेबात

यह रिश्ते,

सगुन की कड़ाही में

न्यौछावर फड़क रहा

भुट्टे की दानों की तरह

उछाल पिरोए,


तल्लीन सब हैं

स्वयं को बहकाते

परिवेश महकाते,

कांधे पर बैठी जिंदगी

बदलती रहती रूप

कदम रहते गतिशील

कभी उत्साहित कभी सोए-सोए।


धीरेन्द्र सिंह

12.11.2024

08.15




रविवार, 10 नवंबर 2024

पगला

 प्यार कब उथला हुआ छिछला हुआ है

प्यार जिसने किया वह पगला हुआ है


एक धुन की गूंज में सृष्टि मुग्ध हर्षित

एक तुम हो तो हो अस्तित्व समर्पित

जिसने चाहा प्रेम जीना वह तो मुआ है

प्यार जिसने किया वह पागल हुआ है


सृष्टि भी देती भाग्यशालियों को पागलपन

कौन इस चलन में देता है अपनापन

परिवेश लगे खिला-खिला मन मालपुआ ही

प्यार जिसने किया वह पागल हुआ है


इसी पागलपन में रचित होती सर्जनाएं

मौलिकता गूंज उठे चेतना को हर्षाए

यह भी अद्भुत दिल ने दिल छुआ है

प्यार जिसने किया वह पागल हुआ है।


धीरेन्द्र सिंह

10.11.2024

20.28




शनिवार, 9 नवंबर 2024

छंट रहे

 जाने कितना झूमता ब्रह्मांड है

मस्तिष्क भी तो सूर्यकांत है

ऊर्जाएं अति प्रबल बलिहारी

भावनाएं इसीलिए आक्रांत है


दीख रहा जो दीनता का प्रतीक

पार्श्व में तो व्यक्ति संभ्रांत है

वेदनाएं रहीं लपक ले उछाल

अर्चनाएं सभी होती सुकांत है


लाभ, अहं, प्रसिद्धि लोक गुणगान

सदा सजग भाव तुकांत है

छल रहे, छंट रहे छलकते अपने

मत कहिए हाल यह दुखांत है


क्षद्मवेशी खप जाते सहज पकड़ा जाए

कुरीतियां ही रीतियाँ नव सिद्धांत है

पढ़ चुके कौन जाने कितना असत्य

लिख रहा जो जाने कैसा दृष्टांत है।


धीरेन्द्र सिंह

10.11.2025

02.29


गुरुवार, 7 नवंबर 2024

बना की मस्तियां

 अद्भुत, असाधारण, अनमोल हस्तियां

समझ का ठीहा है बनारस की मस्तियां


अपनी ही धुन के सब अथक राही

हर जगह मस्त शहर, गांव या पाही

यहां बिना न्याय उडें न्याय अर्जियां

समझ का ठीहा है बनारस की मस्तियां


थोड़ी सी ऐंठन थोड़ा सा है चुलबुला

आक्रामक बाहर दिखे भीतर रंग खिला

बातें बतरंग बहे बेरंग गली और बस्तियां

समझ का ठीहा है बनारस की मस्तियां


अबीर-गुलाल सा कमाल भाल हाल

बांकपन में लचक प्रेम की नव ताल

खिलखिलाहट नई आहट चाहतिक चुस्तियाँ

समझ का ठीहा है बनारस की मस्तियां।


धीरेन्द्र सिंह

08.11.2024

12.07

बना सपने

 कहां से कहां तक फैले हसीन अपने

यहां-वहां सारे जहां दिखे बनारसी सपने


दिल की हर खनक दर्शाते हैं बनारसी

जहां कहीं होते यह बन जाते सारथी

समूह संग मिलकर उत्थान लगते जपने

यहां-वहां सारे जहां दिखे बनारसी सपने


व्यक्तित्व भी कृतित्व भी भवितव्य भी

सबका कल्याण चाहें हर्षित हों सभी

जो भी खुलकर मिला गूंजे नाम अंगने

यहां-वहां सारे जहां दिखे बनारसी सपने।


धीरेन्द्र सिंह

08.11.2024

11.57

आहट

 किसी गुनगुनाहट की आहट मिले

वही ताल धमनियां नचाने लगे

संयम की टूटन की आवाज़ें हों

यूं लगे रोम सब चहचहाने लगे


न जाने यह कैसे उठी भावनाएं

अकेले ही क्यों हकलाने लगे

कभी लगे शोषित तो कभी शोषक

खुद से खुद को क्या जतलाने लगे


यादें और कल्पनाएं मंसूबा झुलाएं

अधखुले चाह गहन धाने लगे

यह यादों का इतना तूफानी समंदर

किनारे पर मन ज्योति जगाने लगे


कहां बस गयी कोने मस्तिष्क में

मन वर्चस्वता ध्वज फहराने लगे

ना मिले ना बोले पर यह अपनापन

बंदगी को जिंदगी में उलझाने लगे।


धीरेन्द्र सिंह

08.11.2024

08.47




फफनते

 फफनते हुए दूध

उफनते हुए मन

दोनों को चाहिए

शीतल छींटे,

क्या होगा जब दिखें व्यस्त

आंखें मींचे,


यह परिवेश पूर्ण जोश

लगे हैं आंख मीचे खरगोश

ऐसा क्यों होता है

गौरैया का कहां खोता है,

यह कैसी रचना रीत

अनगढ़ सी हो प्रतीत,


लिखी जा रही हैं असंख्य

नित हिंदी कविताएं,

रचना से बड़ा अपना चेहरा

बड़ा कर दिखाएं,

नई चलन समूहों की 

फफने चेहरा उफने क्रीत; 


हिंदी फ़फ़न रही है

अभिलाषाएं उफन रही है,

गौरैया बिन घोसला

मुंडेर और बालकनी तलाश रही,

किसने चलाई यह भीत

शीतल छींटे रुके किस रीत।


धीरेन्द्र सिंह

07.11.2024

19.21




बुधवार, 6 नवंबर 2024

समूह गुंजन

 हिंदी लेखक समूह

कैसा भाषा व्यूह

अंग्रेजी शब्द प्रयोग

हिंदी रही दुह


कम भाषा ज्ञानी

संस्कृति ओंधे मुहं

अधजल गगरी छलके

तड़पे हिंदी रूह


गुंजन धर्मा अर्धपढ़ा

प्रतियोगिता आह उह

शब्द अनर्थ बतलाएं

चुप वह समूह


हिंदी लेखक गुंजन

अपूर्ण हिंदी ठूह

बेबस सदस्य, मौन

प्रतिकार अशुद्ध, शूर


श्रेष्ठ हैं समूह

गति उनकी गूढ़

अधपके समूह सीखिए

हिंदी श्रेष्ठ आरूढ़।


धीरेन्द्र सिंह

07.11.2024

12.17




मंगलवार, 5 नवंबर 2024

छठ

 आस्था की अर्चना के

पहुंचने से पहले

तालाब तीर बिछ जाती हैं

कामनाएं,

खिंच जाती हैं लकीरें

प्रस्तुत करते स्थल दावे,


शाम और सुबह

होगा अद्भुत दृश्य,

जल और सूर्य का

गहन अलौकिक संबंध

जहां व्रती अर्चनाएं

ही जाएंगी आच्छादित

उगते सूर्य रश्मि को

गठिया लेने प्रसाद सा,


महानगर की कुछ दृष्टि

नहीं छुपा पाएंगी

अपना हतप्रभ कौतुकता,

जल में खड़े होकर

सूर्य उपासना?,

क्यों? कैसे? किसलिए?

हर वर्ष यह तालाब तट

सिखलाता है छठ महात्म्य

कुछ अबूझे लोगों को,


संस्कार, संस्कृति, सद्भावना

अपनी शैली शुभ कामना

तालाब किनारे की तप साधना

लेकर भौगोलिक विस्तार

छठ का कर रही प्रसार

रवि जल का कलकल

आस्था का यह अद्भुत बल,


कवि सदियों से लिखते आ रहे

चाँद का जल पर प्रभाव,

क्यों नहीं लिखते उन्मुक्त

जल का सूर्य से यह निभाव।


धीरेन्द्र सिंह

05.11.2024

15.58



सोमवार, 4 नवंबर 2024

नारी और पुरुषार्थ

 अग्नि का स्त्रीलिंग होना

योजनाबद्ध शब्दावली नहीं

और

नदी का स्त्रीलिंग होना

एक व्याख्यावाली नहीं

दोनों सृष्टि संवाहक हैं

एक शीतल दूजा पावक है;


आप में भी

पाता हूँ जल अग्नि का

संतुलन,

नीर का है अथाह संयोजन

अग्नि का सुरभित प्रयोजन,

यह मात्र कथन नहीं है

सदियों का भाव जतन है;


पुरुष आदिकाल से

निर्भर है नारी पर

जल और अग्नि के लिए

जिससे पूर्ण कर अपनी भावना,

करता है पुरुषत्व का प्रदर्शन 

पुरुष!


नारी को जीया जा सकता है

नहीं कर सकता पुरुष

प्यार नारी को;


इन तथ्यों को अनदेखा कर

कहता है पुरुष कि, वह

करता है प्यार नारी से,

सदियों से यही झूठ

लिखा जा रहा

बोला जा रहा

बोया जा रहा,


नारी मौन 

अग्नि से जीवन

और जल से शीतलता

करती जा रही प्रदान,

नारी ही है धूरी प्यार की

नारी ही है प्यार जननी

पुरुष अपने पुरुषार्थ में

गलत रचे जा रहा,


पुरुषार्थ पर मुग्धित पुरुष! 

कभी देखो, कभी समझो

नारी को,

एक प्रचंड जल प्रवाह मिलेगा

और

मिलेगा धधकता दावानल,

जिसे निरख बंध जाएगी घिग्गी

छोड़ भागोगे उन्मादी प्यार की बग्घी।


धीरेन्द्र सिंह

04.11.2024

17.58




रविवार, 3 नवंबर 2024

साहित्य

 गुदगुदाती अनुभूतियां

कल्पनाओं में रच

दर्शाती है मुद्राएं

करती है थिरकन 

तब सजा देता है भाव

विभिन्न प्रतीक, बिम्ब से,


आप भी होती हैं पुलकित

पढ़ कर उसे

गढ़ कर खुदसे,

जैसे होता मन

अभिव्यक्तियों में गूंथ

आप को लिखने से;


खिल जाता है साहित्य

निखर जाता है कवित्व

रचना बोल पड़ती है,

रचनाकार है

पाठक और पाठिका हैं

और हैं

आप;


कविता बहती रहती है

छू लेने को कभी

साहित्य।


धीरेन्द्र सिंह

03.11.2024

20.10




शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

चुइंग गम

 चुइंग गम की तरह

तुम्हें चुभलाता मस्तिष्क

कभी नही कहता 

है इश्क़

और

तुम भी भला कैसे बोलो

है मर्यादा का घूंघट,


मन मनन करता

छनन छनन करता

कल्पनाएं करता

चुभलाता है चुइंग गम

और

तुम घुमड़ती बदली

ना तब ना अब बदली,


क्या भारतीय प्यार

नहीं लिए आधार

वात्स्यायन की खोज

खजुराहो बिन दोष

कोणार्क पुरजोश

हैं सांस्कृतिक धरोहर ?


भारतीय संस्कृति और संस्कार

नृत्यमय राग विभिन्न प्यार

दैहिक कम अधिक आत्मिक उद्गार

रहती जिंदगी संवार

रहित विभिन्न व्यभिचार

यही हमारा देश

यही शांति मुक्ति द्वार,


सहमत हो तो चलो

नई रीति राग जगाएं

प्यार नवपरिभाषित बनाएं

मुखरित हों बिन विभेद

बस और नहीं

चुइंग गम चबाएं।


धीरेन्द्र सिंह

02.11.2024

11.13




उलझी हिंदी

 नाटक खेल तमाशा है

उलझी हिंदी भाषा है


नए शब्द नहीं भाए

अंग्रेजी शब्द लिख जाएं

हिंदी से ना नाता है

उलझी हिंदी भाषा है


किसको क्या है पड़ी

मुरझाती फसल खड़ी

सब बिक जाता है

उलझी हिंदी भाषा है


झूठे मंच झूठा सम्मान

हिंदी में कहां अभिमान

सब अंग्रेजी में भाता है

उलझी हिंदी भाषा है



शब्द नहीं अभिव्यक्ति कहां

नवीनता बिन भाषा जहां

हिंदी में बढ़ती हताशा है

उलझी हिंदी भाषा है।


धीरेन्द्र सिंह

02.11.2024

08.1


स्वार्थी

 गुजरी कई ढीठ बता

अपनी चाह को मिटा


पुरुष-नारी युग धर्म

वासना ही नहीं कर्म

रौंदी कामना पैर लिपटा

अपनी चाह को मिटा


जितनी मिली सर्जक थी

बातें खूब बौद्धिक की

चुनी बातें ले चिमटा

अपनी चाह को मिटा


सब सोचें वह चालाक

मेरा कर्म सिद्ध चार्वाक

कांच समझ फेंके ईंटा

अपनी चाह को मिटा।


धीरेन्द्र सिंह

01.11.2024

16.22