प्रेम की फिर मिली वही परिभाषा
देना ही देना प्राप्ति की न आशा
कहां मिलते ऐसे जो करते ऐसा प्रेम
कब खिलते मन जो करते ऐसा मेल
क्या सही प्रेम में ही जीवन प्रत्याशा
देना ही देना प्राप्ति की न आशा
मन बहुत मांगे भाव बहुत कुछ चाहे
तन को क्यों भूलें अलग ही वह दाहे
दावा, क्रोध न बदला, बस अर्पण जिज्ञासा
देना ही देना प्राप्ति की न आशा
बोल गईं वह मुझसे सहज थी अभिव्यक्ति
मन को बता गईं पूरा होती क्या आसक्ति
प्रीति रीति अनोखी, अद्भुत, अविनाशा
देना ही देना प्राप्ति की न आशा
आभार प्रकट निज हृदय करे बन ज्ञानी
प्रेम डगर निर्मोही राही नहीं हैं अनुरागी
कैसे अपनी प्यास दबे प्रकृति मधुमासा
देना ही देना प्राप्ति की न आशा।
धीरेन्द्र सिंह
26.05.2024
10.48
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