मंगलवार, 24 मई 2022

अपहरण

कब चले थे, राह भी है भ्रमित पांवों को दूरी का भी नहीं पता कब निर्मित ही गयी यह दूरियां वक़्त कहता समय से अब तो बता प्रकति यह सम्पूर्ण है डगमगाती कोई दिन मेहनत किसी को रतजगा सब सुरक्षित पर असुरक्षित रहें हर समय प्रहरी जीवन डगमगा सत्य को तो भेदिए ले तर्क नए भाव वंचित, खंडित तथ्य सुगबुगा हरण भी अपहरण भी कब हो गया और बंधन बढ़ रहे क्यों बुन बुना। धीरेन्द्र सिंह

नदिया

कितनी मंथर चल रही नदिया भावनाएं तैर कर तट छू गयी यह प्रकृति है या नियति डगर चलन है अंदाज लट खो गयी तेज नदिया थी तो लट भी था लहरें केश संवारते घट चू गयी अब कहाँ श्रृंगार नदिया निपट खो कर मंजिल ललक सो गई और तट पर कंकड़ों से खेल डुप ध्वनि कंकड़िया भू भई झकोरों में तपिश कशिश नहीं नदिया है सामने हवा लू भई। धीरेन्द्र सिंह

आघात

ना आदर का ही है भूखा कहे बस सत्य लगे रूखा एक आघात ही निर्माण है सजगता तो बस एकमुखा क्यों चर्चा हो कहीं अक्सर क्यों बातें दे अक्सर झुका अपनी जिंदगी जी लीजिए समय से है तिमिर बुझा बस राह थी उपवन भरी कदमों में खुश्बू को लुका मढ़ लिए थे गगन हृदय में यामिनी मन गहि ढुका । धीरेन्द्र सिंह