बुधवार, 23 अक्टूबर 2024

देह परे

 खोज में भी मौज है बहुत

संभावनाओं से हरा-भरा

प्यार वह ना कर सका

हादसों से जो भी है डरा


कामनाएं करें निरंतर याचनाएं

मन खिला-खिला रहा मुस्करा

भाव तरंगे मिले अनुकूल भी

बिन नहाए गंगा लगे मन तरा


अंकुश से भरे जो जीव हैं

अपने बंधनों से गिरे भरभरा

तृप्ति इनकी रुग्ण रहती सदा

और चाहें बढ़े समाज डरा-डरा


मुक्ति देती युक्ति जो करे प्रयुक्ति

देह दीप है जिसने लौ भरा

आत्मलीन हो पढ़ सका आत्मबोल

देह परे जिसने कुशल देह धरा।


धीरेन्द्र सिंह

24.10.2024

11.58


आंच

 प्रीत तुम्हें प्रतीति बना न सकी

रीत तुम्हें अतिथि बना न सकी

एक हवा का झोंका था गुजर गया

नीति तुम्हें नियति बना न सकी


तुम लपट लौ सा आकर्षण लिए

आंच हवन की जता न सकी

कामनाएं मंत्र सी होती रहीं उच्चारित

वेदिका सा तुमको सजा न सकी


कौन जातक बना याचक है रहस्य 

उपासना प्रणय को जगा न सकी

आत्माएं दोनों की थी हृदय दूर

आराधना भजन को पगा न सकी


उस अवधि की गांठ बंधती खुलती

स्मृतियों की डाल लचका न सकी

न जाने कब कुहूक जाती कोयल

यादें मुड़ती रहीं पर भटका न सकीं।


धीरेन्द्र सिंह

24.10.2024

10.10




मीठा दर्द

 मीठा-मीठा दर्द मिला है सयाने में

तुम बिन और रखा क्या जमाने में


बंधन में बंधे हुए जैसे हल में नधे हुए

चुपके-चुपके हैं दौड़ लगाते वीराने में

और सामाजिकता है घूरे, लगातार इसको

यह अपनी मस्ती में, बचते भरमाने में


प्यार रात को गुंजित होता, जैसे जुगनू

दिन फूलों सा लगता पल महकाने में

दिन ऐसे हैं गुजर रहे झिलमिल गुनगुन

ऐसे प्रेमी सहमत सब मिलता अनजाने में


कुछ भी नया नहीं, सदियों से होते आया

प्यार अगर तो, मिलते दुश्मन जमाने में

दिल ने दिल को चाह लिया, क्या गलती है

क्यों हो जाते बेदर्दी, उन्मुक्त जी पाने में।


धीरेन्द्र सिंह

23.10.2024

17.57