शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

14 सितंबर

 राष्ट्रभाषा बन न सकी है यह राजभाषा

14 सितंबर कहता क्यों सुप्त जिज्ञासा


देवनागरी लिखने की आदत न रही अब

भारत में नहीं हिंदी बनी विश्वभाषा कब

हिंदी दुकान बन कृत्रिमता की है तमाशा

14 सितंबर कहता क्यों सुप्त जिज्ञासा


हिंदी को संविधान की मिली हैं शक्ति

स्वार्थ के लुटेरे हिंदी से दर्शाते आसक्ति

कुछ मंच ऊंचे कर बढ़ाते हिंदी हताशा

14 सितंबर कहता क्यों सुप्त जिज्ञासा


झूठे आंकड़ों में उलझी हुई है यह हिंदी

फिर भी कहते हिंदी भारत की है बिंदी

बस ढोल बज रहे हिंदी दिवस के खासा

14 सितंबर कहता क्यों सुप्त जिज्ञासा।


धीरेन्द्र सिंह

14.09.2024

05.55




पुकारते रहे

 निगाहों से छूकर बहुत कह गए वह

पुकारते रहे कर गए शब्दों में तह


एक गुहार गुनगुनाती याचना जो की

सहमति मिली प्रसन्न धारा चल बही

टीसती अभिव्यक्तियां शेष जाती रह

पुकारते रहे कर गए शब्दों में तह


कुछ चुनिंदा वाक्य, लिए वही बहाने

असमर्थ कितने हैं, लग जाते बताने

चुप हो जाने को सोचते, गया ढह

पुकारते रहे कर गए शब्दों में तह


रसभरी बातें वह कहें, कह न पाएं

खामोश वह रहें और उनको सुनाएं

धीरे-धीरे खुलना प्रतीक्षा को सह

पुकारते रहे कर गए शब्दों से तह।


धीरेन्द्र सिंह

13.09.2024

22.24

गुरुवार, 12 सितंबर 2024

कविता

 हर दिन

नहीं हो पाता

लिखना कविता,


चाहती है प्यार

एक उन्मादी आलोडन

कभी आक्रामकता

तो कभी सिहरन,


जलाती है फिर

संवेदनाओं की बाती

और उठते

भावनाओं के धुएं

बन जाते हैं कविता

लिपट चुनिंदा शब्दों से,


किसी दिन अचानक

कभी कंधे पर तो

कभी सीने पर

लुढ़क जाती है कविता

कुछ सुनने

कुछ गुनने,


बन सखी

रहती ऊंघाती

बन अनुभूति संचिता

हर दिन

नहीं हो पाता

कविता लिखना।


धीरेन्द्र सिंह

11.09.2024

08.15

मजबूरियां

 बिगड़ जाए बातें, यह कड़वी मुलाकातें

फिर कैसे कहे जिया, यह प्यार है

तर्क पर प्यार को बांधने की कोशिश

क्या यही प्रणय का उत्सवी त्यौहार है


एक बंधन का स्तब्ध बोले शांत क्रंदन

मन परिणय में यह कैसा अभिसार है

समझौता न्यौता घरौंदा आसीन लगे

कैसा का कैसी पर फैलता अहंकार है


डोर की टूटन को जोड़े है सामाजिकता

घोर रिक्तता में कैसी लहर हुंकार है

सलीके से छुपाने में हैं माहिर मजबूरियां

जी रहे हैं जीने का कैसा चलन धार है।


धीरेन्द्र सिंह

12.09.2024

20.56




मंगलवार, 10 सितंबर 2024

कहो तुम

 कहो सच कहोगी या कविता बसोगी

कोई दिन न ऐसा जो तुमतक न धाए

नयन की कहूँ या हृदय हद में रहूं

हो मेरी या समझूँ हो गए अब पराए

 

कई भावनाओं का होता निस मंथन

बंधन की डोर खुशी लिए लपक जाए

कोई एक बंधन हृदय सुरभित चंदन

करो अबकी कोशिश ह्रदय लग जाए

 

कहां डाल एकल कुहूक जाए कोयल

प्रतिबद्धता प्यार अब तो ना निभाए

छमकती है पायल बिराती है बिछिया

कहो मन ऐसे में क्यों न गुनगुनाए।

 

धीरेन्द्र सिंह

10.09.2024

19.42

सोमवार, 9 सितंबर 2024

हर पल

 ना कभी वक़्त-बेवक्त समय को ललकारा

अवधि की कौन सोचे लगे हर पल प्यारा

 

कभी कुछ खनक उठती है जानी-पहचानी

ललक धक लपक उठती जाग जिंदगानी

किसी कहानी ने अब तक ना है पुकारा

अवधि की कौन सोचे लगे हर पल प्यारा

 

बांध कविताओं में कुछ भाव कुछ क्षणिकाएं

दोबारा फिर ना पढ़ें गति आगे बढ़ते जाए

पलटकर देखने पर समय ने है कब संवारा

अवधि की कौन सोचे लगे हर पल प्यारा

 

सहज चलने सरल ढलने का चलन स्वीकार

किसी की खुशियां सर्वस्व ना कोई अधिकार

कहां कब मुड़ सका जिसे दिल ने है नकारा

अवधि की कौन सोचे लगे हर पल प्यारा।

 

धीरेन्द्र सिंह

09.09.2024

28.25



शनिवार, 31 अगस्त 2024

एडमिन

 समूह के नाम सहित दूसरे समूह धमाल

यह लोग कौन हैं जिनका कर्म है रुमाल


एक समूह लिखें दूजे समूह नाम लहराएं

एक-दूजे को कैसे आपस में देते उलझाएं

यह कैसा लेखन समूह नाम का जंजाल

यह लोग कौन हैं जिनका कर्म है रुमाल


एक एडमिन की एक सदस्य से हुई लड़ाई

बोली मेरा भाई था दूजे नाम रोक लगाई

हिम्मत हुई कैसे समूह मेरा कहूँ ठोक ताल

यह कौन लोग हैं जिनका कर्म है रुमाल


यह मस्तमिजाजी है या तुनकमिजाजी कहें

एडमिन से पूछा बोली निकाला क्या कहें

करती थी मुक्त प्रशंसा कर दी वही बेहाल

यह कौन लोग हैं जिनका कर्म है रुमाल।


धीरेन्द्र सिंह

31.08.2024

23.24