बिगड़ जाए बातें, यह कड़वी मुलाकातें
फिर कैसे कहे जिया, यह प्यार है
तर्क पर प्यार को बांधने की कोशिश
क्या यही प्रणय का उत्सवी त्यौहार है
एक बंधन का स्तब्ध बोले शांत क्रंदन
मन परिणय में यह कैसा अभिसार है
समझौता न्यौता घरौंदा आसीन लगे
कैसा का कैसी पर फैलता अहंकार है
डोर की टूटन को जोड़े है सामाजिकता
घोर रिक्तता में कैसी लहर हुंकार है
सलीके से छुपाने में हैं माहिर मजबूरियां
जी रहे हैं जीने का कैसा चलन धार है।
धीरेन्द्र सिंह
12.09.2024
20.56
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें