बुधवार, 21 जुलाई 2021

सर्वस्व

 तन्मय तृषित तत्व अभिलाषी

रोम-रोम पैठ करे तलाशी

सर्वस्व का सब जान लेना

सतत, निरंतर मन है प्रयासी


आंगन में अंकों की तालिका

घर में कर्मठता के प्रवासी

पट घर के सब चिपके अकुलाए

आंगन आशाओं में हताशी


ऊर्ध्व प्रगति की अनंत आकांक्षाएं

आत्मा ही आत्मा विश्वासी

सिर्फ बात यदि बातें सिमटाए

पल प्रतिपल लगे चपल मधुमासी।


धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

रहे छुपाए

 बंद करते जा रहे हैं

हर द्वार, रोशनदान

प्रत्यंचाएं खींची हुई

शर्मिंदा हृदय वितान


रहे छुपाए बच न पाए

कोई कैसे पाया संज्ञान

बंद घरों में पसरे धूल

भावनाएं छू ले मचान


राजनीति हो या जगनीति

भाए न किसी को बिहान

अंधकार, खामोशी छलके

नैया, चप्पू, लंगर, श्रीमान।


धीरेन्द्र सिंह


आत्मिक द्वंद्व

 कंकड़ लगातार

जल वलय 

डुबक ध्वनि

खुद से युद्ध

मन चितेरा।


धीरेन्द्र सिंह


सोमवार, 5 जुलाई 2021

शंकर तांडव

 गीत लिखने को गगन रहे आतुर

सज-धज कर धरा भी इठलाए

प्रकृति प्रणय है अति प्रांजल

प्रीत गीत सब रीत अकुलाए


उग सी रही मन बस बन दूर्वा

नैवेद्य वहीं बन मूक चढ़ाएं

कोमल दूर्वा झूमे पुष्परहित 

मन समझे उन्हें छू गई ऋचाएं


ग्रहण लग गया धरा को अब तो

शंकर तांडव, गगन छुप जाए

धरती लिपटी शंकर के डमरू

गगन अगन, जल मुस्काए


यही प्रकृति है प्रणय यही है

शंकर क्यों तांडव मचाएं

गीत, गगन-धरा नित की बातें

धरती चुपके से पढ़ जाए।


धीरेन्द्र सिंह

समय की वेदना

 समय की वेदना का यह अंजन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है


नियति की गोद में निर्णय ही सहारा

उड़े मन को मिले फिर वही किनारा

हृदय के दर्द का अब यही रंजन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है


हासिल कर लिए जो छूट कैसे जाए

जिंदगी ठहर गई जहां और क्यों धाए

उठो न भोर स्वागत का ले मंजन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है


सकल सुरभित वलय के गिर्द है बंधन

नयन मुग्धित मगन आभूषित करे चंदन

यह सम्प्रेषण लिए गहि-गहि क्रंदन है

निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है।


धीरेन्द्र सिंह

चूम जाओ

 ओ मन झूम जाओ

आकर चूम जाओ


बहुत नादान है यह मन

दहन धड़कन है सघन

सावनी व्योम लाओ

आकर चूम जाओ


परिधि जीवन का है बंधन

देहरी पर सजा चंदन

मर्यादा निभाओ

आकर चूम जाओ


शमित होती हर दहन

मन को चूमता जब मन

वादे ना भुलाओ

आकर चूम जाओ।


धीरेन्द्र सिंह


ओ सगुनी

 मेरी सांस चले एहसास रुके

कोई बात है या फिर कहासुनी

तुम रूठ गई हो क्यों तो कहो

सर्वस्व मेरी कहो ओ सगुनी


निस्पंद है मन लूटा मेरा धन

दिल कहता है मेरी अर्धांगिनी

एक रिश्ता बनाया प्रकृति जिसे

खामोश हो क्यों प्रिए अनमनी


पग चलते हैं तुम ओर सदा

राहों ने खामोशी क्यों है बुनी

पत्ते भी हैं मुरझाए उदास से

बगिया की मालन लगे अनसुनी।


धीरेन्द्र सिंह