समय की वेदना का यह अंजन है
निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है
नियति की गोद में निर्णय ही सहारा
उड़े मन को मिले फिर वही किनारा
हृदय के दर्द का अब यही रंजन है
निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है
हासिल कर लिए जो छूट कैसे जाए
जिंदगी ठहर गई जहां और क्यों धाए
उठो न भोर स्वागत का ले मंजन है
निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है
सकल सुरभित वलय के गिर्द है बंधन
नयन मुग्धित मगन आभूषित करे चंदन
यह सम्प्रेषण लिए गहि-गहि क्रंदन है
निरखता मन तुम्हें यह प्रभंजन है।
धीरेन्द्र सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें