मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

त्वरित दृग

त्वरित दृग हास्य विस्मित करे
मृगसमान मन विस्तारित पंख लिए
चंचला चपला चतुर्दिक दृश्यावली
अगवानी करें तुम्हारी हम शंख लिए

शुभता शुभ्र संग प्रभाव छांव
ठांव निखर जाए एक उमंग लिए
परिष्कृत निरंतर अबाधित डगर
न दूजा दिख सका यह ढंग लिए

मधुर हुंकार मध्यम टंकार तुम
झंकार की पुकार बहुरंग लिए
अथक संग पुलकित चल चलें
निखार से बंधे उत्तम प्रबंध लिए

गहनतम कि गगन चांद सा
प्रतिबिंबित तारे हुडदंग लिए
मेघ से घटाएं शबनमी सी
निरखि उड़े मन प्रति तरंग लिए।

धीरेन्द्र सिंह

रविवार, 1 अप्रैल 2018

नया दौर

मन संवेदनाओं का ताल है
आपका ही तो यह कमाल है
लौकिक जगत की अलौकिकता
दृश्यपटल संकुचित मलाल है

कभी टीवी, दैनिक पत्र, मोनाईल
स्त्रोत यही प्रदाता हालचाल है
स्वविश्लेषण, अवलोकन लुप्तता
सत्यता निष्ठुरता से बेहाल है

कुछ न बोलें कुछ न लिखें लोग
मौन रहना प्रगति का ढाल है
व्यक्तिगत प्रगति का मकड़जाल
अब कहाँ नवगीत नव ताल है

इस अव्यवस्था की लंबी अवस्था
बाहुबल प्रचंड और दिव्य भाल है
सत्यता डिगती नहीं न झुकी कहीं
संक्रमण का दौर है परिवर्तनीय काल है।

धीरेन्द्र सिंह

शनिवार, 31 मार्च 2018

एकात्म

मुक्त कितना हो सका है मन
भाव कितने रच रहे गहन
आत्मा उन्मुक्त एक विहंग
ज़िन्दगी क्रमशः बने दहन

नित नए भ्रम पुकारे उपलब्धियां
सोच पुलकित और मन मगन
जीव की जीवंतता अनबूझी
सूक्ष्म मन अब लगे पैरहन

देख भौतिक आकर्षण विचलन
फिसलन खींच रही पल हरदम
अनियंत्रित दौड़ ले बैसाखियां
लक्ष्य का अनुराग स्वार्थी मन

प्रकृति है दर्शा रही उन्नयन राहें
मति भ्रमित तिरस्कृत उपवन
अब कली, भ्रमर, पराग, गंध पुष्प
साध्य नहीं काव्य की लगन

जीव, जीवन, आत्मन, मनन
अंतरात्मा से प्रीत घटा घनन
स्नेह, नेह, ध्येय की स्पष्टता
उन्नयन एकात्मिक हो तपन।

धीरेन्द्र सिंह

तुम

कौंध जाना वैयक्तिक इयत्ता है
यूं तो सांसों से जुड़ी सरगम हो
स्वप्न यथार्थ भावार्थ परमार्थ
कभी प्रत्यक्ष तो कभी भरम हो

अनंत स्पंदनों के सघन मंथन
वंदन भाव जैसे नया धरम हो
खयाल अर्चना संतुष्टि नैवेद्य
जगराता का तासीर खुशफहम हो

विद्युतीय दीप्ति लिए मन व्योम लगे
चाहत में घटाओं सा नम हो
अंतराल में बूंद सी याद टपके
जलतरंग पर थिरकती शबनम हो

निजता के अंतरंग तुम उमंग
सुगंध नवपल्लवन जतन हो
अकस्मात आगमन उल्लसित लगे
तुम हर कदम हर जनम हो।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 29 मार्च 2018

भोर

भोर की पलकें और चेहरे पर जम्हाई
मन में राधा सी लगे रागभरी तन्हाई
कोमल खयाल सिद्धि जीवन की कहे
एक शुभ दिन आतुर व्यक्त को बधाई

सुबह के संवाद अक्सर अनगढ़ बेहिसाब
तैरता मन उड़ता कभी दौड़ता अमराई
और एहसासों का बंधन प्रीत क्रंदन
युक्तियां असफल कई डगर डगर चिकनाई

छुट्टी हो तो बिस्तर ले करवटें पकड़
बेधड़क न सुबह लगे न अरुणाई
अलसाए तन में सघन गूंज होती रहे
तर्क वितर्क छोड़ मति जाए मुस्काई

और कितना सुखद निढाल ले ताल
बवाली भावनाएं नव माहौल है गुंजाई
कोई न छेड़े प्रीत योग की कहें क्रियाएं
नवनिर्माण नवसृजन  निजता की तरुणाई।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 28 मार्च 2018

आधुनिक जीवन

बूंदें जो तारों पर लटक रही
तृषा लिए सघनता भटक रही
अभिलाषाएं समय की डोर टंगी
आधुनिकता ऐसे ही लचक रही

चुनौतियों की उष्माएं गहन तीव्र
वाष्प बन बूंदें शांत चटक रही
बोल बनावटी अनगढ़ अभिनय
कुशल प्रयास गरल गटक रही

जीवन में रह रह के सावनी फुहार
बूंदें तारों पर ढह चमक रही
कभी वायु कभी धूप दैनिक द्वंद
बूंदों को अनवरत झटक रही

अब कहां यथार्थ व्यक्तित्व कहां
क्षणिक ज़िन्दगी यूं धमक रही
बूंद जैसी जीवनी की क्रियाएं
कोशिशों में ज़िन्दगी खनक रही।

धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 27 मार्च 2018

ऑनलाइन प्यार

मधुर मृदुल करतल
ऐसा करती हो हलचल
स्मित रंगोली मुख वंदन
करती आह्लादित प्रांजल

सम्मुख अभ्यर्थना कहां
मन नयन पलक चंचल
फेसबुक, वॉट्सएप, मैसेंजर
दृग यही लगे नव काजल

मन को मन छुए बरबस
भावों के बहुरंग बादल
अपनी मस्ती में जाए खिला
मन सांखल बन कभी पागल

ऑनलाइन बाट तके अब चाहत
नेटवर्क की शंका खलबल
वीडियो कॉल सच ताल लगे
अब प्रत्यक्ष मिलन हृदयातल।

धीरेन्द्र सिंह