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शनिवार, 12 जून 2021

गीत लिखे

गीत लिखो कोई भाव सरणी बहे
मन की अदाओं को वैतरणी मिले
यह क्या कि तर्क से जिंदगी कस रहे
धड़कनों से राग कोई वरणी मिले

अतुकांत लिखने में फिसलने का डर
तर्कों से इंसानियत के पिघलने का डर
गीत एक तरन्नुम हम_तुम का सिलसिले
नाजुक खयालों में फूलों के नव काफिले

एक प्रश्न करती है फिर प्रश्न नए भरती
अतुकांत रचनाएं भी गीतों से संवरती
विवाद नहीं मनोभावों में अंदाज खिलमिले
गीत अब मिलते कहां अतुकान्त में गिले।

धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 5 मई 2020

कविता और शराब

कविता भी शराब होती है
रंग लिए
ढंग लिए
उमंग की तरंग लिए
व्यक्ति में घुल खोती है
कविता भी शराब होती है

इसमें कवि "फ्लेवर" है
लेखन का "टेक्सचर" है
कड़वाहट और मिठास है
मनभावों को खुद में डुबोती है
कविता भी शराब होती है

आरम्भ की पंक्तियों में "वाह"
मध्य भाग में मन चाहे "छाहँ"
अंत में लगे पकड़े कोई "बाहं"
इस तरह अंकुर उन्माद बोती है
कविता भी शराब होती है

जुड़े यदि गायन बन जाती "बार"
नृत्य यदि जुड़े तो महफ़िल खुमार
शब्द भावों से हृदय में उठे झंकार
कविता-शराब में दांत कटी रोटी है
कविता भी शराब होती है।

धीरेन्द्र सिंह

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गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

शब्दों को चाहिए

व्यक्ति में यदि भाव हैं तो लगे सुघड़
महज पत्थर पर तो चलते हैं हथौड़े
अनुभूति का अंदाज़ हो तो लगे जांबाज
वरना तो सभी जी लेते अक्सर थोड़े-थोड़े

शब्दों को चाहिए सुनार की सी चोट
भावों का आभूषण कला को हो निचोड़े
अभिव्यक्ति हृदय को कर दे आंदोलित
वरना तो सभी लिखते हैं एहसास तोड़े-मोड़े।

धीरेन्द्र सिंह

तुमको जी लूँ

तुमको जी लूँ तो जन्नत में पाऊं
कहो आत्मने कब डुबकी लगाऊं
नहीं तन, मन तक है मेरी मंजिल
साहिल से कह दो तो बढ़ मैं पाऊं

बदन का जतन सुख की काया बने
मन का वतन पाकर ध्वज फहराउं
कह दो बदन को क्यों मुझसे रंजिश
नयन जब तक न चाहें, मन कैसे पाउँ।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

सुबह

सुबह
जब मैं बालकनी में बैठ
पहाड़ों को देखता हूँ
हरे भरे पेड़ों से आती
कोयल की कूक
मन में उठती हुक,
उठती हैं मन से
भावों की अनेक कलियां
कल्पनाओं के तागे में
लड़ियाँ बना उड़ जाती हैं
चाहत के डैनों संग
और डूब जाती हैं जाकर
प्रियतमा के हृदयतल में
अकुलाती, अधीर, अंगड़ाई संग
लौट आती है मुझ तक
बन पुष्प
रंग, गंध संग
और बालकनी भर जाती है
सूर्य रश्मियों से।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

सुघड़ लगती हो

सुघड़ लगती हो
साड़ी जब तुमसे
लिपट जाती है
चूड़ियां जब रह-रह
खनखनाती है
पावों के महावर
जब गुनगुनाते हैं
हम और बहुत और
 पास हो जाते हैं,

माथे की बिंदिया
सूरज की ललक
नयनों में कजरा की
श्यामल धमक
अधरों पर थिरके
अनकही बातें
कानों में बाली
झूम-झूम नाचे
भाव उन्मादी थरथराते हैं
न जाने क्यों घबड़ाते हैं

बाह्य अभिव्यक्ति
कितनी आसक्ति
व्यक्ति की जीवंतता
व्यक्ति ही व्यक्ति
आंतरिक आकर्षण
तर्करहित युक्ति
इससे प्रबल
कहां कोई शक्ति
जीवन सुरभित मिल बनाते हैं
ज़िन्दगी की धुंध को बहलाते हैं।

धीरेन्द्र सिंह
नारी सिर्फ श्रृंगार
मनभावन अभिसार
या कुछ और भी
करता है निर्धारित
देखने का तौर भी,

देह की दालान
या असीम आसमान
वासना उन्माद की
यह एक संस्कार
या तासीर आधुनिक दौर की,

यही तो समझाई हो
कुछ ना छुपाई हो
नारीत्व दमदार की
प्रीत संगिनी गुरु वंदनी
जीवन के हर टंकार की,

प्यार भी और शक्ति भी
उन्नयन की आसक्ति दी
कर्मयुद्ध की संगिनी भी
अस्त्र भी हो शस्त्र भी बनो
कवच हर एक प्रहार की।

धीरेन्द्र सिंह


बुधवार, 11 सितंबर 2019

मन की तूलिका

मन की तूलिका से
भावों में रंग
हो जाए विहंग
तुमको सजाकर
दुनिया को हटाकर,
कब स्वीकारा है तुमने
दुनिया के खपच्चे की बाड़ को
अपने अंदाज से
अपने जज्बात से
दुनिया की मनगढ़ंत आड़ से,

सौम्य, शांत मैदानी नदी सी
तुम गुजरो कभी पहाड़ों से
तो कभी मैदानी भाग से
हर समय दीप्त
तुम्हारी आग से,
यह आग
जाड़े की रात की आग
ऊपर से शांत
भीतर प्रज्ज्वलित भाग
एक संतुलन को बनाए हुए
खुद को अलमस्त जिलाए हुए,

तुम्हारी यह जीवंतता
कैसे देती है पीस
दुनिया के अवसादों को
अनमनी, अस्वीकार्य बातों को
इतनी सहजता से
कितनी सुगमता से
कि लगे
तुम समाधिस्त साधिका हो
खुद में खुद की आराधिका हो,

घर-परिवार के स्वाभाविक झंझावात
विद्वेष या नाराजगी
क्रोधित होते हुए भी
नहीं देखा इतने वर्षों में,
कहां संभव है
आज के युग में
यह संतुलन, यह सहजता
जग इसे पढ़कर भी
कपोल कल्पना है समझता
पर
जगत की नायाब अनुभूति
मेरे अधिकार में है
कथ्य की सार्थकता
उन्मुक्त जयकार में है,

सुनो
फिर एक मीठी झिड़की लगाओगी
दुनियादारी मुझे सिखाओगी
और कहोगी
निजी बातों को ही
क्यों लिखता हूँ
प्रिए
निरंतर तुम में
जो बहता हूँ।

धीरेन्द्र सिंह

अतुकांत

अधूरी रचनाओं की पंगत में
कहीं खोई सी
एक तरफ लुढ़की
हताश सा विश्वास
भावों को गढ़ रही हो,
अनगढ़ क्या होता है
यदि घट पर हो लहरें
असंभव क्या होता है
यदि लहरों पर हो तिनके
तुम लहर ही तो हो
मेरी सोच का, रचनाओं का
पर न जाने क्यों लुढ़की हो,

लेखन की तुकांत विधा मेरी
कर दोगी विदा ओ चित मेरी
पर हां मानूंगा कहना तुम्हारा
एक चुनौती की तरह
जब तुम कहोगी
कविता वही होती हो
जिसमें रसधार हो
तुकांत हो या अतुकांत
अलहदा खुमार हो,

मेरे लिख देने की क्षमता
संशय के घेरे में
न जाने क्यों
तुम्हारी जुल्फों से
पहचाने शैम्पू की खुश्बू न आए
न लटें बौराएं
न ही वह खिलखिलाहट दिखे
अतुकांत लिखने का संकेत
बोल ही देती हो आजकल,

जब से तुम मिली
कविता कहां लिखा
लिखता भी कैसे
जिए जा रहा था कविता
बस शाब्दिक छींटे द्वारा
संभालने का प्रयास था शब्द सामर्थ्य
कविता जी लेना भी कौशल
यह न तो काव्य विधा
न समीक्षक का विचार बिंदु
फिर भी
लिख ही दिया अतुकांत
क्योंकि न जाने कब से
तुम लुढ़की हो
अधूरी रचनाओं की पंगत में।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 28 मार्च 2019

ज़िन्दगी

बूंदें जो तारों पर लटक रही
तृषा लिए सघनता भटक रही
अभिलाषाएं समय की डोर टंगी
आधुनिकता ऐसे ही लचक रही

चुनौतियों की उष्माएं गहन तीव्र
वाष्प बन बूंदें शांत चटक रही
बोल बनावटी अनगढ़ अभिनय
कुशल प्रयास गरल गटक रही

जीवन में रह रह के सावनी फुहार
बूंदें तारों पर ढह चमक रही
कभी वायु कभी धूप दैनिक द्वंद
बूंदों को अनवरत झटक रही

अब कहां यथार्थ व्यक्तित्व कहां
क्षणिक ज़िन्दगी यूं धमक रही
बूंद जैसी जीवनी की क्रियाएं
कोशिशों में ज़िन्दगी खनक रही।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 27 मार्च 2019

तकनीकी संबंध

मधुर मृदुल करतल
ऐसी करती हो हलचल
स्मित रंगोली मुख वंदन
करती आह्लादित प्रांजल

सम्मुख अभ्यर्थना कहां
मन नयन पलक चंचल
फेसबुक, वॉट्सएप, मैसेंजर
दृग यही लगे नव काजल

मन को मन छुए बरबस
भावों के बहुरंग बादल
अपनी मस्ती में जाए खिला
मन सांखल बन कभी पागल

ऑनलाइन बाट तके अब चाहत
नेटवर्क की शंका खलबल
वीडियो कॉल सच ताल लगे
अब प्रत्यक्ष मिलन हृदयातल।

धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 26 मार्च 2019

दुनिया है तो दुनियादारी है
दाल, चावल, गेहूं, तरकारी है
निजी है तो बेहतर ही होगा
मिल जाता खोट गर सरकारी है

उत्तरोत्तर कर रहा विकास चतुर्दिक
ऐसी प्रगति भी लगे दुश्वारी है
बाजारवाद में अपनी बिक्री की चिंता
रोको, अवरोध, कहां विरोध कटारी है

सत्य कहां निर्मित होता प्रमाण मांग
गर्भावस्था की क्या प्रामाणिक जानकारी है
भ्रूण की किसने देखा संख्या बतलाओ
सत्य हमेशा नंगा बोलो क्या लाचारी है।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

शिल्पकार

बैठ कर एक शिल्पकार
एक मूर्ति में रहे रमा
ना आकर्षण ना हंगामा
बस रचनाधर्मिता का शमा

न कोई ओहदा न कोई पद
न सुविधाओं का समां
मिट्टी में सनी कल्पनाएं
कलाकृति बन मेहरबां

यह भी तो है व्यक्तित्व
सहज, सरल न बदगुमां
रचते समाज, जीवन सहज
खुशियों के अबोले रहनुमा

ऐसे ही कई व्यक्ति व्यस्त
अलमस्त सृजन उर्ध्वनुमा
जीवन के मंथन में मगन
चूर-चुर पिघल रह खुशनुमा।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

अनुभूति

मन जब अपनी गहराई में
उतर जाए
एक ख़ामोश सन्नाटा मिले
कुछ कटा जाए
और
एकाकीपन की उठी आंधी
आवाज लगाए
टप, टप, टप
ध्वनित होती जाए;

प्रायः ऐसा हो बात नहीं
पर होता जाए
जब भी मन अकुलाए
खुद में खोता जाए
और
तन तिनके सा उड़ता - उड़ता
उसी नगरिया धाए
छप, छप, छप
कोई चलता जाए।

धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 4 अप्रैल 2018

चाटुकारिता

वहम अक्सर रहे खुशफहम
यथार्थ का करता दमन
अपने-अपने सबके झरोखे
नित करता उन्मुक्त गमन

गहन मंथन एक दहन
सहन कायरता का आचमन
उच्चता पुकार की लपकन
चाटुकारिता व्यक्तित्व जेहन

बौद्धिकता पद से जोड़कर
नव संभावनाएं बने सघन
भारतीय विदेश जगमगाएँ
भारत में साष्टांग चलन

चंद देदीप्य भारतीय भविष्य
अधिकांशतः स्वान्तः में उफन
चंद की उष्माएँ खोलाए
क्रमशः जी हुजूरी दफन।

धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

त्वरित दृग

त्वरित दृग हास्य विस्मित करे
मृगसमान मन विस्तारित पंख लिए
चंचला चपला चतुर्दिक दृश्यावली
अगवानी करें तुम्हारी हम शंख लिए

शुभता शुभ्र संग प्रभाव छांव
ठांव निखर जाए एक उमंग लिए
परिष्कृत निरंतर अबाधित डगर
न दूजा दिख सका यह ढंग लिए

मधुर हुंकार मध्यम टंकार तुम
झंकार की पुकार बहुरंग लिए
अथक संग पुलकित चल चलें
निखार से बंधे उत्तम प्रबंध लिए

गहनतम कि गगन चांद सा
प्रतिबिंबित तारे हुडदंग लिए
मेघ से घटाएं शबनमी सी
निरखि उड़े मन प्रति तरंग लिए।

धीरेन्द्र सिंह

रविवार, 1 अप्रैल 2018

नया दौर

मन संवेदनाओं का ताल है
आपका ही तो यह कमाल है
लौकिक जगत की अलौकिकता
दृश्यपटल संकुचित मलाल है

कभी टीवी, दैनिक पत्र, मोनाईल
स्त्रोत यही प्रदाता हालचाल है
स्वविश्लेषण, अवलोकन लुप्तता
सत्यता निष्ठुरता से बेहाल है

कुछ न बोलें कुछ न लिखें लोग
मौन रहना प्रगति का ढाल है
व्यक्तिगत प्रगति का मकड़जाल
अब कहाँ नवगीत नव ताल है

इस अव्यवस्था की लंबी अवस्था
बाहुबल प्रचंड और दिव्य भाल है
सत्यता डिगती नहीं न झुकी कहीं
संक्रमण का दौर है परिवर्तनीय काल है।

धीरेन्द्र सिंह

शनिवार, 31 मार्च 2018

एकात्म

मुक्त कितना हो सका है मन
भाव कितने रच रहे गहन
आत्मा उन्मुक्त एक विहंग
ज़िन्दगी क्रमशः बने दहन

नित नए भ्रम पुकारे उपलब्धियां
सोच पुलकित और मन मगन
जीव की जीवंतता अनबूझी
सूक्ष्म मन अब लगे पैरहन

देख भौतिक आकर्षण विचलन
फिसलन खींच रही पल हरदम
अनियंत्रित दौड़ ले बैसाखियां
लक्ष्य का अनुराग स्वार्थी मन

प्रकृति है दर्शा रही उन्नयन राहें
मति भ्रमित तिरस्कृत उपवन
अब कली, भ्रमर, पराग, गंध पुष्प
साध्य नहीं काव्य की लगन

जीव, जीवन, आत्मन, मनन
अंतरात्मा से प्रीत घटा घनन
स्नेह, नेह, ध्येय की स्पष्टता
उन्नयन एकात्मिक हो तपन।

धीरेन्द्र सिंह

तुम

कौंध जाना वैयक्तिक इयत्ता है
यूं तो सांसों से जुड़ी सरगम हो
स्वप्न यथार्थ भावार्थ परमार्थ
कभी प्रत्यक्ष तो कभी भरम हो

अनंत स्पंदनों के सघन मंथन
वंदन भाव जैसे नया धरम हो
खयाल अर्चना संतुष्टि नैवेद्य
जगराता का तासीर खुशफहम हो

विद्युतीय दीप्ति लिए मन व्योम लगे
चाहत में घटाओं सा नम हो
अंतराल में बूंद सी याद टपके
जलतरंग पर थिरकती शबनम हो

निजता के अंतरंग तुम उमंग
सुगंध नवपल्लवन जतन हो
अकस्मात आगमन उल्लसित लगे
तुम हर कदम हर जनम हो।

धीरेन्द्र सिंह

गुरुवार, 29 मार्च 2018

भोर

भोर की पलकें और चेहरे पर जम्हाई
मन में राधा सी लगे रागभरी तन्हाई
कोमल खयाल सिद्धि जीवन की कहे
एक शुभ दिन आतुर व्यक्त को बधाई

सुबह के संवाद अक्सर अनगढ़ बेहिसाब
तैरता मन उड़ता कभी दौड़ता अमराई
और एहसासों का बंधन प्रीत क्रंदन
युक्तियां असफल कई डगर डगर चिकनाई

छुट्टी हो तो बिस्तर ले करवटें पकड़
बेधड़क न सुबह लगे न अरुणाई
अलसाए तन में सघन गूंज होती रहे
तर्क वितर्क छोड़ मति जाए मुस्काई

और कितना सुखद निढाल ले ताल
बवाली भावनाएं नव माहौल है गुंजाई
कोई न छेड़े प्रीत योग की कहें क्रियाएं
नवनिर्माण नवसृजन  निजता की तरुणाई।

धीरेन्द्र सिंह