मंगलवार, 5 अगस्त 2025

धराली गांव

 उत्तरकाशी का धराली गाँव

गंगोत्री यात्रा का प्रमुख पड़ाव

बादल फटा मलबा बहा प्रचंड

देखते ही देखते कई घर घाव


प्रकृति के करीब प्रकृति अनुसार

व्यक्ति कामना प्रबल बढ़ते द्वार

बादल फटा नदी भरी मलबा धाव

देखते ही देखते कई घर घाव


पहाड़ रहे टूट सागर को रहे पाट

वृक्ष भी कट रहे प्रगति का ठाट

मनुष्य प्रकृति में करे विस्तार प्रस्ताव

देखते ही देखते कई घर घाव


अग्नि, जल, वायु सर्वशक्तिमान हैं

मनुष्य प्रगति के भी कई दांव हैं

धराली पुनः संकेत दे प्रकृति छांव

देखते ही देखते कई घर घाव।


धीरेन्द्र सिंह

05.08.2025

15.57



सोमवार, 4 अगस्त 2025

प्यास

जीवन की टहनियों से शब्दों को लिए तोड़

वह ताक दिए थे बस जीवन को लिए मोड़

आस चढ़ी प्यास कुछ खास हुए एहसास

जाना-बूझा न सुना रिश्ता सा लिए जोड़


टहनी से चुने शब्द पर चढ़ा भाव का मुलम्मा

लिखें या कहें कोशिश कश्मकश संग होड़

एहसास जिसमें प्यास हो वह कैसे खास हो

एक आतुरता एक बेचैनी सागर सा है आलोड़


उनका ताकना उनकी आदत भी अदा भी है

उनमें बहकना स्वाभाविक देख जी उठे मरोड़

व्यक्तित्व का कृतित्व जब जीवंत अस्तित्व लगे

निजत्व के घनत्व का अपनत्व बढ़े तब दौड़


इसलिए भी किसलिए कभी हँसलिए कथ्यलिए

बहेलिए सा चलदिए पहेलियों का जाल ले बढ़ा

उनका ताकना जबसे लगे है कोमल सा बांधना

असीम प्यास लिए आस सम्मान हेतु हो खड़ा।


धीरेन्द्र सिंह

04.08.2025

14.14




शनिवार, 2 अगस्त 2025

गांव

 गलियां सूनी हैं पहेलियों के पांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव


राहों की माटी पकड़ रही हैं छोड़

धूल बनकर दौड़ती जिंदा कहां मोड़

खेत-खलिहान लगे कौवा की कांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव


जेठ की भरी दोपहरी सा है सन्नाटा

चहल-पहल खुशियों को लगा चांटा

गिने-चुने लोग तरसे व्यक्तियों को छांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव


बंटाई व्यवस्था पर अधिकांश हैं खेत

घर एक दूसरे से छुपाते हैं खबर, भेद

परिवार, खानदान में हैं नित नए दांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव


शाम ढलते ही होती कुछ वही सरगर्मियां

नशा विभिन्न प्रकार के रचते हैं शर्तिया

ग्रामीण संस्कृति में गायब हो रहे हैं गांव

निदिया न आए नयन भरे हैं गांव।


धीरेन्द्र सिंह

02.08.2025

15.08




गुरुवार, 31 जुलाई 2025

धर्माचार्य

 वासना से जुड़कर अब चर्चा चरित्र हो गयी

दो धर्माचार्य की टिप्पणियां पवित्र हो गयी


सृष्टि के आरंभ से पनपती रही हैं कामनाएं

वृष्टि आर्थिक विकास की बलवती वासनाएं

नई परिभाषाएं भाव चरित्र में विचित्र बो गईं

दो धर्माचार्यों की टिप्पणियां पवित्र हो गयी


देह की दालान से जुड़ा पवित्रता का मचान

धर्मग्रंथों में है उल्लिखित पवित्रता का विधान

कर्म कहीं दब गया देह छोड़ पवित्र लौ गयी

दो धर्माचार्यों की टिप्पणियां पवित्र हो गयी


नारी शोषण है नारी देह की रचित शुद्धता

पुरुष दबंगता से रही लड़ती नारी निहत्था

विकसित बौद्धिक समाज प्रज्ञा कौंध गयी

दो धर्माचार्यों की टिप्पणियां पवित्र हो गयी


यह न राजनीति और ना बात विवादास्पद

मानवीय समाज और परिवार उत्पादक

वैवाहिक संस्था रही टूट प्रथा कैसी हो गयी

दो धर्माचार्यों की टिप्पणियां पवित्र हो गयी।


धीरेन्द्र सिंह

01.08.2025

10.54

न्यायालय

 तत्व छूट जाता सत्य रहता लड़खड़ाता

न्यायालय कथ्य उबाल तथ्य न ले आता


सत्ता और शक्ति में संभव है असंतुलन

नागरिकता ज्वलंत न तो संभव है दलन

आत्मा विचलित को विधि बांध न पाता

न्यायालय कथ्य उबाल तथ्य न ले आता


आदर्श, सिद्धांत, नैतिकता लगे तकिया

यह दुखद ऐसी समाज में चर्चित बतियां

मानवता के मूल्यों में कांध न लग पाता

न्यायालय कथ्य उबाल तथ्य न ले आता


गरजकर बरसकर दमभर सबका है सफर

राह अपनी चाह अपनी अन्य कुछ बेकदर

कृत्रिम जीवन संस्कृति को दीमक चाट छाता

न्यायालय कथ्य उबाल तथ्य न ले आता।


धीरेन्द्र सिंह

31.07.2025

19.25



बुधवार, 30 जुलाई 2025

रीता है

 सब लोग कहें कुशल-मंगल सब बीता है

कौन जाने किसके जीवन में क्या रीता है


सभी प्रयास सभी सावधानियां नियमावली

बढ़ते कदम अथक पर घुमाती रही वही गली

कभी कर्म कभी भाग्य कहीं प्रारब्ध लीला है

कौन जाने किसके जीवन में क्या रीता है


कर्म के मर्म को समझ धर्म निरखें नर्म-गर्म

भाग्य के भाष्य में साक्ष्य के पथ्य पार्श्व कर्म

कर्मवाद भाग्यवाद बहुविवाद कौन जीता है

कौन जाने किसके जीवन में क्या रीता है


हर व्यक्ति कर भक्ति किसी नशे से कर आसक्ति

शालीन कोई अशालीन नशे से चाहे दर्द मुक्ति

शिष्ट और अशिष्ट व्यक्ति परिस्थितियों का छींटा है

कौन जाने किसके जीवन में  क्या रीता है।


धीरेन्द्र सिंह

30.07.2025

21.18


मंगलवार, 29 जुलाई 2025

भूंरी पत्ती

हवा के झोंके से आ गयी चिपक

भूंरी सी कम नमी वाली वह पत्ती

चिहुंक मन जा जुड़ा वहीं पर फिर

जहां जलती ही रहती भाव अगरबत्ती


थोड़ी कोमल थोड़ी खुरदुरी सी लगे

उम्र भी हो गयी देह की अपनी सूक्ति

हल्की खड़खड़ाहट से बोलना चाहे

मुझको छूते चिकोटी काटते भूंरी पत्ती


खयाल भी अकड़ जाते हल्के से जैसे

हवा संग दौड़ती-भागती यह भूंरी पत्ती

कभी लगता वही कोमलता सिहरन वही

अब सब ठीक लगे भटका दी भूंरी पत्ती


अचानक उड़ गई झोंका हवा का था तेज

रोकना, पकड़ना चाहा हवा से करते आपत्ति

कितनी गहराई से हम मिले वर्षों बाद जी

कहीं खोती ने दिल की हो गयी संपत्ति।


धीरेन्द्र सिंह

30.07.2025

08.55