रविवार, 3 नवंबर 2024

साहित्य

 गुदगुदाती अनुभूतियां

कल्पनाओं में रच

दर्शाती है मुद्राएं

करती है थिरकन 

तब सजा देता है भाव

विभिन्न प्रतीक, बिम्ब से,


आप भी होती हैं पुलकित

पढ़ कर उसे

गढ़ कर खुदसे,

जैसे होता मन

अभिव्यक्तियों में गूंथ

आप को लिखने से;


खिल जाता है साहित्य

निखर जाता है कवित्व

रचना बोल पड़ती है,

रचनाकार है

पाठक और पाठिका हैं

और हैं

आप;


कविता बहती रहती है

छू लेने को कभी

साहित्य।


धीरेन्द्र सिंह

03.11.2024

20.10




शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

चुइंग गम

 चुइंग गम की तरह

तुम्हें चुभलाता मस्तिष्क

कभी नही कहता 

है इश्क़

और

तुम भी भला कैसे बोलो

है मर्यादा का घूंघट,


मन मनन करता

छनन छनन करता

कल्पनाएं करता

चुभलाता है चुइंग गम

और

तुम घुमड़ती बदली

ना तब ना अब बदली,


क्या भारतीय प्यार

नहीं लिए आधार

वात्स्यायन की खोज

खजुराहो बिन दोष

कोणार्क पुरजोश

हैं सांस्कृतिक धरोहर ?


भारतीय संस्कृति और संस्कार

नृत्यमय राग विभिन्न प्यार

दैहिक कम अधिक आत्मिक उद्गार

रहती जिंदगी संवार

रहित विभिन्न व्यभिचार

यही हमारा देश

यही शांति मुक्ति द्वार,


सहमत हो तो चलो

नई रीति राग जगाएं

प्यार नवपरिभाषित बनाएं

मुखरित हों बिन विभेद

बस और नहीं

चुइंग गम चबाएं।


धीरेन्द्र सिंह

02.11.2024

11.13




उलझी हिंदी

 नाटक खेल तमाशा है

उलझी हिंदी भाषा है


नए शब्द नहीं भाए

अंग्रेजी शब्द लिख जाएं

हिंदी से ना नाता है

उलझी हिंदी भाषा है


किसको क्या है पड़ी

मुरझाती फसल खड़ी

सब बिक जाता है

उलझी हिंदी भाषा है


झूठे मंच झूठा सम्मान

हिंदी में कहां अभिमान

सब अंग्रेजी में भाता है

उलझी हिंदी भाषा है



शब्द नहीं अभिव्यक्ति कहां

नवीनता बिन भाषा जहां

हिंदी में बढ़ती हताशा है

उलझी हिंदी भाषा है।


धीरेन्द्र सिंह

02.11.2024

08.1


स्वार्थी

 गुजरी कई ढीठ बता

अपनी चाह को मिटा


पुरुष-नारी युग धर्म

वासना ही नहीं कर्म

रौंदी कामना पैर लिपटा

अपनी चाह को मिटा


जितनी मिली सर्जक थी

बातें खूब बौद्धिक की

चुनी बातें ले चिमटा

अपनी चाह को मिटा


सब सोचें वह चालाक

मेरा कर्म सिद्ध चार्वाक

कांच समझ फेंके ईंटा

अपनी चाह को मिटा।


धीरेन्द्र सिंह

01.11.2024

16.22




गुरुवार, 31 अक्टूबर 2024

हाँथ पकड़ लें

 बर्तन जितनी भूख हो गई

अदहन नहीं सुनाने को

भरसांय सा जग लगे

क्या-क्या चला भुनाने को


पेट अगन अब जग गगन

कौन आता समझाने को

जग दहन में कहां सहन

कितना कुछ है भरमाने को


चलिए हाँथ पकड़ लें अब तो

समरथ सारथ हो जाने को

पाया बहुत अधिक है लेकिन

बहुत अधिक है निभाने को।


धीरेन्द्र सिंह

31.10.2024

11.20




मंगलवार, 29 अक्टूबर 2024

एकताल

 जब दिए में रहे छलकता घी-तेल

रंग लाती ज्योति-बाती-दिया मेल


इधर-उधर न जलाएं भूल पंक्तियां

किधर-किधर देखिए हैं रिक्तियां

अनुरागी उत्तम विभेद का क्यों खेल

रंग लाती ज्योति-बाती-दिया मेल


एक जलाए फुलझड़ी दूजा सुतली बम

कही दिया लौ कहीं बिजली चढ़ खम्ब

एकरूपता में भव्यता खिले जस बेल

रंग लाती ज्योति-बाती-दिया मेल


एक माला सुंदर गूंथे बहुरूप बहुरंग

एकताल सुरताल संगीत दिग-दिगंत

दीपोत्सव आत्मउत्सव ना पटाखा खेल

रंग लाती ज्योति-बाती-दिया मेल।


धीरेन्द्र सिंह

29.10.2024

13.23




सोमवार, 28 अक्टूबर 2024

अनुष्ठान हो गया

 मैं खुद में खुद का अनुष्ठान हो गया

मंदिर की गली का मिष्ठान हो गया


उपहार में प्राप्त कई आत्मीय आभास

परिवेश मेरा भर दिए मिठास ही मिठास

मधुरता के व्योम में गुमान हो गया

मंदिर की गली का मिष्ठान हो गया


रंगबिरंगी लड़ियों में जुगलबंदी के तार

एक लड़ी दूजे की ज्योति करे स्वीकार

घर जगमगा रहे बढ़ा तापमान हो गया

मंदिर की गली का मिष्ठान हो गया


विधान का संविधान यह निज अनुष्ठान

अपनत्व से आपूरित हैं सारे ही मेहमान

इस भावुकता में अनुभव कमान हो गया

मंदिर की गली का मिष्ठान हो गया।


धीरेन्द्र सिंह

28.10.2024

19.20