बुधवार, 13 दिसंबर 2023

कलर स्मोक

 गुजर गए द्वार से सुरक्षा ने ना छुवा

जूता से कलर स्मोक से हो गया धुवाँ


दो बाहर को किए धुवाँ दो संसद में

सांसदों ने पकड़ा जोश मिले भय में

दर्शक दीर्घा से कूदे जैसे हो कोई कुवां

जूता से कलर स्मोक से हो गया धुवाँ


संसद है संविधान प्रहरी प्रजातंत्र का

दर्शक दीर्घा मिला अधिकार है प्रजा का

प्रजा के चार लोगों ने इस मंदिर को छुवा

जूता से कलर स्मोक से हो गया धुवाँ


अपनों से भी खतरा कहे माटी घबड़ा

स्वार्थ, भ्रमित होकर जाते कहीं टकरा

संसद आक्रमण बरसी को दिए गूंजा

जूता से कलर स्मोक से हो गया धुवाँ


अपने ही घर में और कितनी सुरक्षा

अपने ही भ्रमित होकर भूलें सदीक्षा

अपनों में असभ्यता का पनपे क्यों सुवा

जूता से कलर स्मोक से हो गया धुवाँ।


धीरेन्द्र सिंह

13.12.2023


15.56


मंगलवार, 12 दिसंबर 2023

किसान

 माघ सीवान में कटकटाए रतिया

रजाई ढुकाय हड़बड़ाए तोरी बतियां


खड़ी फसल देख नय-नय मुस्काएं

सरर-सरर हवा देह को लहकाएं

ओस-ओस ओढ़ कांपे हैं पतियां

रजाई ढुकाय हड़बड़ाए तोरी बतियां



चंदा सितारे निस संगी मनद्वारे

किसानी का लहजा मचान संवारे 

लालटेन सी गरमाहट बसे छतिया

रजाई ढुकाय हड़बड़ाए तोरी बतियां


खेत हुई हलचल सियार हैं पधारे

खट-खट लाठी हौ-हौ चिंघाड़े

जैसे पुकारे हिय तड़पत छतिया

रजाई ढुकाय हड़बड़ाए तोरी बतियां।


धीरेन्द्र सिंह

12.12.2023

21.27

सोमवार, 11 दिसंबर 2023

गई कहां

 मन के भाव, मारे बूझबूझ कलइयां

मन अकुलाए कहे, गयी कहां गुइयाँ


भव्यता की भीड़ में आलीशान नीड़ है

सभ्यता के रीढ़ में बेईमान पीर है

भावनाएं सौम्यता से ले रही बलैयां

मन अकुलाए कहे, गयी कहां गुइयाँ


कोई न पहचान पाए मन की व्यथा

जो भी मिले कह सुनाए अपनी कथा

जीवन में जीवन की अनगढ़ गवैया

मन अकुलाए कहे, गयी कहां गुइयाँ


एक लक्ष्य, एक सत्य, कहां एकात्मकता

विकल्प उपलब्ध कई उनसे सकारात्मकता

समर्पण स्थायी, यौवन में कहां भईया

मन अकुलाए कहे, गयी कहां गुइयाँ


सत्य की प्रतीति है फिर भी मन मीत है

आजकल के प्यार की यही जग रीत है

पकड़-छोड़ फिर पकड़ खेलम खेलइया

मन अकुलाए कहे, गयी कहां गुइयाँ।



धीरेन्द्र सिंह

12.12.2023

09.23

रविवार, 10 दिसंबर 2023

प्रीत बहुरागी

 रचित है रमित है राग अनुरागी

कथित है जनित है प्रीत बहुरागी


व्यंजना में भावों की कई युक्तियां

कामनाओं की नित कई नियुक्तियां

पहल प्रयास निस असफल प्रतिभागी

कथित है जनित है प्रीत बहुरागी


तुम तो महज मनछाँव सहज हो

व्यथित हृदय पूछे अब कहाँ हो

वो पहलभरे दिन चाह दिलरागी

कथित है जनित है प्रीत बहुरागी


सांत्वना के बोल कहते मत बोल

विवशता या मजबूरी जेहन में तोल

कुछ ना असहज दृष्टि ही सुरागी

कथित है जनित है प्रीत बहुरागी।



धीरेन्द्र सिंह

10.12.2023

21.29

गुरुवार, 7 दिसंबर 2023

भावों की क्यारी

 कितने नयन निकस गए कसने की बारी में 

मिली तुम बहुत देर से भावों की क्यारी में


कहे समाज दृष्टि ब्याहता, यह पारिवारिक

कदम बढ़ गए पक क्या यह है सुविचारित

व्यक्ति-व्यक्ति मृदु परिचय,वक़्त अँकवारी में

मिली तुम बहुत देर से भावों की क्यारी में


सहज कृत्य है या असहज, विश्व नासमझ

धार्मिक तागे से महज, यह कृत्य उलझ

क्या जाने द्वय सुलझन को दिल बारी@ में

मिली तुम बहुत देर से भावों की क्यारी में


विवाहेत्तर संबंध,उफ्फ अनर्गल यह लेखन

ब्याहता एकलक्षी बस घर, चौका, बेलन

अंतर्राष्ट्रीय नारी दिवस भी मन फुलवारी मैं 

मिली तुम बहुत देर से भावों की क्यारी में


क्या कहिए जब चेतना प्यार माने, देह भोग

उच्च प्यार प्रणेता तन्मय आत्मिक संभोग

खुले शब्द का लेखन, मानसिक बीमारी में

मिली तुम बहुत देर से भावों की क्यारी में


ईश्वर भक्त का भाव, गहन हो सोचिए

ऊपर जो लिखा, तब क्या उसे नोचिये

मंदिर वास्तु,धर्म पुस्तकें कल्पना गलियारी में

मिली तुम बहुत देर से भावों की क्यारी में।


धीरेन्द्र सिंह


07.12.2023

19.22


बुधवार, 6 दिसंबर 2023

चेतना

 चेतना में जड़ता या जड़ता में चेतना

दृष्टि का कार्य यही इनको है भेदना


विश्व में निर्माण या निर्माण से निर्वाण

ज्ञानियों की बातों में दिखते कई प्रमाण

विश्लेषण महज प्रक्रिया या मुग्ध देखना

दृष्टि का कार्य यही इसको है भेदना


चेतना का प्रथम चरण होते सहज वरण

वेदना के प्रकरण उसका न होता क्षरण

सत्य को बूझे बिना तथ्य का क्यों रेंकना

दृष्टि का कार्य यही इसको है भेदना


प्यार प्रखर प्रदीप्त जग में संलग्न तृप्ति

फिर भी मन दौड़ता देख एक नई आसक्ति

आत्मा शून्य में मन करता रहे अवहेलना

दृष्टि का कार्य यही इसको है भेदना।


धीरेन्द्र सिंह

07.12 2023

09.51


मंगलवार, 5 दिसंबर 2023

समय

 

बहुत जी लिए ऐसे जीवन को कसके

समय जा रहा छूकर यूं हंसते-हंसते

 

कभी दिल न सोचा सौगात क्या है

हसरती दुनियादारी की औकात क्या है

कहां पर हैं पहुंचे यूं सरकते-सरकते

समय जा रहा छूकर यूं हंसते-हंसते

 

प्रणय पाठ का वह जीवन भी अलग था

समय ज्ञात था पर करम ही विलग था

समर्पण रंग रहा नए स्वांग भरते-भरते

समय जा रहा छूकर यूं हंसते-हंसते

 

जो साथ वह तो हैं भी कितने साथ

पास जो राह रहे हैं भी कितने पास

बीच अपनों में खुद को तलाशते बचते-बचते

समय जा रहा छूकर यूं हंसते-हंसते।

 

धीरेन्द्र सिंह

05.12.2023

15.30