सोमवार, 13 सितंबर 2021

आठवीं अनुसूची

 संविधान के आधार पर

क्या कर सकी राजभाषा

राष्ट्र हित उपकार ?

कहिए श्रीमान

मेरे आदरणीय 

भारत देश के नागरिक,

सार्थकता प्रश्न में है,

अर्थ उपयोगिता का है,

समस्या दिशा का है,

क्या राजभाषा हिंदी

अकुलाई दिखती है

14 सितंबर को

या

फिर

संविधान की आठवीं अनुसूची में

दर्ज समस्त भाषाएं,

ठगी खड़ी हैं 

सभी भारतीय भाषाएं,

अंग्रेजी का अश्वमेध घोड़ा

गूंज मचाते अपने टाप से

ढांक रहा है

समस्त भारतीय भाषाएं,

हाथ बढ़ रहे अनेक

पकड़ने को लगाम

पर लगाम तक पहुंचे हाथ

जाते हैं सहम,

न जाने क्यों

असुलझा है यह

यक्ष प्रश्न,

राजभाषा नीति

हंसती है, मुस्कराती है

करती है प्रोत्साहित,

चीखती है एक बार फिर

14 सितंबर को

देश की भाषिक दिशाएं,

देख भाषिक अभिनय

अधर मुस्काए, 

वक्तव्य भ्रामक, कल्पित।


धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 11 अगस्त 2021

वह

 घर लिपटा हुआ

रेंगते रहता है

हर पल

कुछ मांग लिए

कुछ उलाहने लिए

और वह

इन सबसे बतियाते

एक-एक कर

निपटाती जाती है

आवश्यक-अनावश्यक मांगें,

करती है संतुष्ट 

उलाहनों को

कर भरसक प्रयास,

अनदेखा रहता उसका प्रयास

उसके द्वारा संपादित कार्य,

थक जाती है

पर रुकती नहीं

रसोई में रखा भोजन

भूल जाती है खाना,

चबा लेती है

जो आए हाँथ

निपटाते कार्यों को,

शाम का नाश्ता

रात का भोजन

बनाती है 

रेंगती मांगें और उलाहने

तब भी रहते हैं सक्रिय,

घर में सबको खिला

न जाने कब

सो जाती है 

बिन खाए,

तुम खाई क्या

पूछे कौन बताए,

सुबह उठती है

तन पर लिए

रेंगते वही अनुभूतियां,

उसके मन भीतर भी

रेंगते रहता है गर्म छुवन

बूंद-बूंद,

घर की यही आलंबन है

चुप रहना उसका स्वावलंबन है।


धीरेन्द्र सिंह

शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

बादलों के अश्रु

 बादलों के अश्रु से

भींगी जो बालकनी

वह फूलों को देख कर

मुस्कराते रहे


मिलन की वेदना गरजी

बिजलियाँ झलक को लपकीं

देह की सिहरनों में वह

कसमसाते रहे


कोई आ जाए ऐसे ही

समझ सर्वस्व ही अपना

प्रशंसक बीच सपना बांट

खिलखिलाते रहे


हृदय की वेदिका में

निरंतर चाह का हवन

भाव घंटियों को सुन वह

बुदबुदाते रहे


यह बादल अब भी भटके

बालकनी में बरसते

खिड़कियां बंद कर वह

झिलमिलाते रहे।


धीरेन्द्र सिंह

साहित्यिक देवदासियां

 आजकल 

महफिलें नहीं जमती

गजरे की खुश्बू भरी गलियां

पान के सुगंधित मसालों की

सजी, गुनगुनाती दुकानें

और सजे-संवरे

इश्क़ के शिकारियों की

इत्र भरे जिस्म

सीढ़ियों पर नहीं लपकते,

अब नया चलन है

फेसबुक, व्हाट्सएप्प आदि

महफिलों के नए ठिकाने

इनकी भी एक नस्ल है

ढूंढना पड़ेगा

और मिल जाएंगी

मदमाती, बलखाती

लिए अदाएं

प्यासी और प्यास बुझानेवाली

पढ़ी-लिखी, धूर्त, मक्कार

आधुनिक देवदासियां,

कुछ साहित्यिक पुस्तकें पढ़

कुछ नकल कर लेती मढ़

और रिझाती हैं, बुलाती हैं,

कुछ भी टिप्पणी कीजिए

बुरा नहीं मानेंगी

बल्कि फोन कर

अपने जाल में फासेंगी,

कर लेंगी भरपूर उपयोग

फिर कर देंगी त्याग

बोलेंगी मीठा हरदम

आशय होगा"चल भाग"

आज ऐसी ही 

"साहित्यिक" देवदासियों का भी

बोलबाला है,

ऑनलाइन इश्क़ स्वार्थ सिद्धि

और बड़ा घोटाला है,

प्रबुद्ध, चेतनापूर्ण, गंभीर

महिला रचनाकार

कर रहीं गंभीर साहित्य सर्जन

कुछ "देवदासियां" अपनी महफ़िल सजा

कर रही साहित्य उपलब्धि सर्जन,

हे देवदासियों

पढ़ आग लगे जल जाइए

हिंदी साहित्य को बचाइए।


धीरेन्द्र सिंह

बुधवार, 21 जुलाई 2021

सर्वस्व

 तन्मय तृषित तत्व अभिलाषी

रोम-रोम पैठ करे तलाशी

सर्वस्व का सब जान लेना

सतत, निरंतर मन है प्रयासी


आंगन में अंकों की तालिका

घर में कर्मठता के प्रवासी

पट घर के सब चिपके अकुलाए

आंगन आशाओं में हताशी


ऊर्ध्व प्रगति की अनंत आकांक्षाएं

आत्मा ही आत्मा विश्वासी

सिर्फ बात यदि बातें सिमटाए

पल प्रतिपल लगे चपल मधुमासी।


धीरेन्द्र सिंह

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

रहे छुपाए

 बंद करते जा रहे हैं

हर द्वार, रोशनदान

प्रत्यंचाएं खींची हुई

शर्मिंदा हृदय वितान


रहे छुपाए बच न पाए

कोई कैसे पाया संज्ञान

बंद घरों में पसरे धूल

भावनाएं छू ले मचान


राजनीति हो या जगनीति

भाए न किसी को बिहान

अंधकार, खामोशी छलके

नैया, चप्पू, लंगर, श्रीमान।


धीरेन्द्र सिंह


आत्मिक द्वंद्व

 कंकड़ लगातार

जल वलय 

डुबक ध्वनि

खुद से युद्ध

मन चितेरा।


धीरेन्द्र सिंह