इंटरनेट के जंगल में
उलझा व्यक्ति
स्वयं को पाता व्यस्त
होकर मस्त,
कामनाएं
फुदकती गौरैया सी
भटक चलती है तो
कभी ढलती है
मन को रखते व्यस्त,
गुजरते दिन लगे
जाते हैं भर
सुखभाव
करते निभाव और
बदलते स्वभाव
दौड़ते रहता है मन
कस्तूरी मृग सा,
लगे धमनियां बन चुकी
इंटरनेट संवाहक;
व्यक्ति
संजाल में
कर निर्मित जाल
जंगल हो गया है।
धीरेन्द्र सिंह
05.10.2024
09.28
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