सोमवार, 8 अप्रैल 2024

रूठ गईं

 वह मुझसे गईं रूठ किसी बात पर

रह गई बातें अधूरी सी गांठ भर


दिल भी बोले पर पूरा ना बोल पाए

मन के आंगन रंग विविध ही दिखाए

अभिलाषाएं हों मुखरित दिखते चाँद भर

रह गई बातें अधूरी सी गांठ भर


वह नहीं तो क्या करें काव्य लिखें

उसकी बातों से लिपटकर बवाल लिखें

मन हर सुर में चीत्कारता है नाद भर

रह गई बातें अधूरी सी गांठ भर


सीखा देता है जीवन जीने का तरीका

जीता है कौन जीवन जीने के सरीखा

अभिनय हो जाती आदत अक्सर बाहं भर

रह गई बातें अधूरी सी गांठ भर।


धीरेन्द्र सिंह


09.04.2024

09.12

साहित्यिक चोरी

 चुरा ले गया कोई कविता की तरह

यह आदत नहीं अनमनी प्यास है

छप गयी नाम उनके चुराई कविता


हिंदी लेखन की हुनहुनी आस है


छपने की लालसा लिखने से अधिक

चाह लिखने की पर क्या खास है

इसी उधेड़बुन में चुरा लेते हैं साहित्य

यह मानसिक बीमारी का भास है


मित्र बोलीं फलाना समूह में हैं चोर

हिंदी साहित्य लेखन के श्राप है

कहने लगी साहित्य छपने में है लाभ

वरना यत्र-तत्र लेखन तो घास है


मित्र की बात मान दिया सम्मान

प्यास की राह में सबका उपवास है

मनचाहा मिले तो कर लें ग्रहण

चोरियां भी साहित्य में होती खास हैं।


धीरेन्द्र सिंह

08.04.2024

16.06

करिश्माई आप

 सघन हो जतन हो मगन हो

करिश्माई आप का गगन हो


भावनाओं की विविध उत्पत्तियाँ

कामनाओं की कथित अभिव्यक्तियां

आप सृजनकर्ता कुनकुनी तपन हो

करिश्माई आप का गगन हो


पर्वतों की फुनगियों के फूल हैं

सुगंधित सृष्टि आप समूल हैं

हृदय अर्चना की मृदुल अगन हो

करिश्माई आप का गगन हो


नहीं मात्र मनभाव प्रशस्तियाँ

बेलगाम होती हैं आसक्तियां

आपके सहन में अपनी लगन हो

करिश्माई आप का गगन हो।



धीरेन्द्र सिंह

08.04.2024

09.32

रविवार, 7 अप्रैल 2024

कागतृष्णा


याद उनकी आती क्यों है एकाएक

मन बहेलिए सा क्यों दौड़ पड़ा

काग तृष्णा देख आया सब जगह

अब तो मिलता ही नहीं जलघड़ा

 

रिश्ते के बिना भी रहे हमकदम

जाल कोई सा उनपर आन पड़ा

कोई कहे चतुराई थी सजग तभी

कोई कहे स्वार्थपूरित था ज्ञान खड़ा

 

शब्द सूखे लगने लगे थे भावरहित

और वहीं चाह थी रह तड़पड़ा

एक गया जग गया निज श्वास से

सब वह अपनी अभिव्यक्तियों में बड़बड़ा

 

घेरकर अपने वलय में करे कलह

टेरकर भी रच सका न गीत अड़ा

कागतृष्णा उड़ि चला उसी छोर फिर

तलहटी में जल लिए हो घड़ा पड़ा।

 

धीरेन्द्र सिंह

07.04.2024

17.21

गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

व्योम को नहलाएं

 आ समंदर बाजुओं में, व्योम ओर धाएं

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


तृषित वहीं है व्योम, छल का है क्षोभ

साथ चलना उन्मत्त उड़ना, मेघ का लोभ

सागर में मेघ को, पुनः सकल मिलाएं

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


धीर है, गंभीर है, विश्वास भरा तीर है

दृष्टि थम जाए जहां, ऐसा वह प्राचीर है

बदलियों की चंचलता, आसमान भरमाए

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


सूर्य की तपिश में व्योम की कशिश

वाष्प से बदली, व्योम में ही रचित

व्योम ने तराशा उसे, बिन बोले बरस जाए

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं


मेघ, बदली, बादल एक, हैं श्वेत-श्यामल

जब धरा की प्रीत जागे, गरजें-बरसे पागल

ठगा हतप्रभ व्योम का दग्ध मन कुम्हलाए

छल-कपट मेघ करे, व्योम को नहलाएं।


धीरेन्द्र सिंह


04.04.2024

21.14

बुधवार, 3 अप्रैल 2024

फुलझड़ियाँ

 अधर स्पंदित अस्पष्ट

नयन तो हैं स्पष्ट

ताक में भावनाएं

कब लें झपट


जहां जीवंत समाज

दृष्टि छल कपट

चुहलबाजी में कहें

चाह तू टपक


इतने पर आपत्ति

व्यवहार न हो नटखट

ऐसे आदर्शवादी जो

गए कहीं भटक


अट्ठहास दिल खोल

अभिव्यक्ति लय मटक

जिंदगी की फुलझड़ियाँ

ऐसे ही चटख।



धीरेन्द्र सिंह

02.04.2024

21.32

मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

देहरी

देहरी पहुंचा उनके, देने कदम आभार
समझ बैठी वह, आया मांगने है प्यार

ठहर गया वह कुछ भी ना बोला
नहीं सहज माहौल प्रज्ञा ने तौला
फिर बोली क्यों आए, खुले ना द्वार
समझ बैठी वह आया मांगने है प्यार

कैसे बोलें क्यों बोलें देहरी की वह बात
नीचे भागी-दौड़ी आयी थी ले जज्बात
उसी समन्वय का करना था श्रृंगार
समझ बैठी वह आया मांगने है प्यार

उसकी निश्चल मुद्रा देख, बोली भयभीत
जाते हैं या दरवाजे को, बंद करूँ भींच
वह मन ही मन बोला, देहरी तेरा उपकार
समझ बैठी वह आया मांगने है प्यार

क्या कभी याचना से प्राप्त हुआ है प्यार
क्या कभी प्यार भी रहा बिन तकरार
वह गया था देहरी को करने नमस्कार
समझ बैठी वह आया मांगने है प्यार।


धीरेन्द्र सिंह
02.04.2024
13.17