सोमवार, 30 जून 2025

नारी

 कभी देखा है जग ने

एकांत में अकेले

बुनते हुए वर्तमान को

भविष्य को

निःशब्द,


कभी देखा है पग ने

देहरी से

शयनकक्ष तक

बिछी पलकों का

गुलाबी आभा मंडल

निश्चल,


कभी देखा है दबकर

मुस्कराते अधरों को

कंपित नयन को

गहन, सघन, मगन

निःस्वार्थ,



आसान नहीं है

नारी होना, जो

कर देती घर का

जगमग हर कोना,

समर्पित, सामंजस्यता बनाए

निर्विवाद,


यदि यह देख लिया 

तो समझिए

बूझ गए आप

ईश्वरीय सत्ता

आराधना की महत्ता।


धीरेन्द्र सिंह

01.07.2025

08.51


अभिमत

 अभी मत अभिमत देना

आंच को निखार दो

तलहटी कच्चा हो तो

नहीं पक पाते मनभाव

नहीं चाहेगा कोई इसमें निभाव,


दहक जाने दो

लौ लपक जाने दो,


चाहत की तसली

खुली आंच पर चढ़ाना

गरीबी है तो

साहस भी है,

अग्नि का है अपना स्वभाव

तेज हवा, धूल-धक्कड़ में निभाव,


भावनाओं को तल जाने दो

सोंधा लगेगा थोड़ा जल जाने दो,


कितनी हल्की, कितनी सस्ती

होती है  तांबे की तसली, जो

पानी भी गर्म करती है

खाना भी पकाती है

शस्त्र का कर ग्रहण स्वभाव

प्रतिरक्षा का करती है निभाव,


तसली को तप जाने दो

सोचो, मत रोको, विचार आने दो।


धीरेन्द्र सिंह

30.06.2025

14.29





रविवार, 29 जून 2025

मुक्तिवाद

 एक बात पर संवाद कर निनाद

एक नाद भर विवाद पर आबाद

मेरे मन में चहलकदमी आपकी

चलता रहे यह और मैं रहूं नाबाद


एक युद्ध है जीवन एक खेल भी

एक मेल आपसे सतत जिंदाबाद

एक भेल कल्पनाओं का मिल भरें

मन प्लेट सा खाली है बिन स्वाद


सौंदर्य आपका कब से करे मोहित

अभिव्यक्तियाँ निखर करे नित याद

सावनी बदली सा मन घटा बन छाई

दुहाई जबर हो बस चाहे निर्विवाद


क्यों करें बातें क्यों दर्शाएं अपनापन

यह सोच छोड़िए बेचैन है दिल प्रासाद

एक प्रयास है सायास है एक आस है

आप पास हैं विश्वास हैं कहे मुक्तिवाद।


धीरेन्द्र सिंह

29.06.2025

19.14


बुधवार, 18 जून 2025

आँचल

 छुपा लो मुझे अपने आँचल में मुझको

मुझे माँ की आँचल की याद आ रही है

छोड़ो रिश्ते की दुनिया की यह सब बातें

कहो आँचल यह हां तड़पन छुपा रही है


नारी जब भी देखा मातृत्व शक्ति पाया

प्रेयसी हो तो क्या, मुक्ति बुला रही है

यदि न हो नारी किसी रूप में जुड़ी तो

लगे जिंदगी रिक्त झूले झूला रही हो


मैं सच कहूँ तो मान लोगी कहो ना

मातृत्व भाव आँचल घुला रही है

देहगंध ही भ्रमित कर बहकाए हरदम

कहो न निष्भाव आँचल बुला रही है।


धीरेन्द्र सिंह

18.06.2025

17.41

शाम की चर्चा

 विषय भी मेरा, वक्ता भी चयनित

संचालन खुद का, होता है नित


होते ही शाम सज जाते चैनल

कुछ सार्थक कुछ जोड़ें पैनल

भाव आक्रामक भाषा अमर्यादित

संचालन खुद का, होता है नित


श्रवण इंद्रियों की गहन हो परीक्षा

बोलते वक्ता रहें शोर उपजे सदीक्षा

संचालन प्रायः नहीं होता संयमित

संचालन खुद का, होता है नित


चल राजी चर्चा चैनल सभी व्यस्त

वही प्रवक्ता अपनी बातों में मस्त

सरदर्द हो तो कमजोर सहन शक्ति

संचालन खुद का, होता है नित


कई चैनल करते है बड़ा मनोरंजन

कई वक्ता खुद का करें अभिनंदन

कभी हास्य फूटता कभी मृदुल स्मित

संचालन खुद का, होता है नित।


धीरेन्द्र सिंह

18.06.2025

18.19

मंगलवार, 17 जून 2025

तत्व और भाव

 तत्व की तथ्यता यदि है सत्यता

भाव की भव्यता कैसी है सभ्यता

तत्व और भाव अंतर्द्वंद्व जीवन के

रचित जिस आधार पर है नव्यता


अपरिचित भी लगे सुपरिचित सा 

परिचित में ना मिले ढूंढे ग्राह्यता

अनजाने पथ पर पांव अथक चलें

राह परिचित प्रति कदम मांगे द्रव्यता


तत्व का एक रूप है जो जगभासी

भाव है अमूर्त गूढ़ अनुभवी तथ्यता

हर किसी का भाव सिंचित है पुष्पित

तत्व प्रदर्शन मात्र नेपथ्य की आर्द्रता


भाव यदि सक्रिय नहीं व्यक्ति हो कहीं

तत्व की सतह पर तलाशता अमर्त्यता

भाव ही तत्व का है मूल ईंधन जग में

भाव ही प्यार और प्यार में है सार्थकता।


धीरेन्द्र सिंह

18.06.2025

08.16




शब्द ले गया

 कोई मेरा शब्द ले गया भावों के आंगन से

निर्बोला सा रहा देखता झरझर नयना सावन से

कुछ ना बोली संग अपनी टोली चुप हो ली

यहां हृदय उत्कीर्ण रश्मियां लिपटी हवन पावन से


शुद्ध हो गयी निर्जल आंखें अकुलाई थी बाहें

सृजन नया कुछ सोचा था सूखा किस छाजन से

प्रणय आग भीतर नहीं सृजन कहां हो पाता है

दो पुस्तक मिल किए प्रकाशित मुद्रण की मांगन से


टोली टूटी वह भी टूटी सत्य कुछ लिख डाला

पुस्तक मेला वर्चस्व रहे बुक स्टाल के बाभन से

दोहा, माहिया लिखनेवाला मंच का लालच दे डाला

कौन कहां है पूछता प्यार के छिपे जामन से


शब्द मेरे और भाव भी मेरे नित सुनती थी मुग्धा

साहित्यिक जीवन बातें एक वर्ष चला पावन से

साहित्यिक प्रणय सुदूर से दो वर्ष चला नियमित

मेरे शब्दों से जहान बना ली उत्कर्ष पागन से।


धीरेन्द्र सिंह

18.06.2025

03.27