सुबह
जब मैं बालकनी में बैठ
पहाड़ों को देखता हूँ
हरे भरे पेड़ों से आती
कोयल की कूक
मन में उठती हुक,
उठती हैं मन से
भावों की अनेक कलियां
कल्पनाओं के तागे में
लड़ियाँ बना उड़ जाती हैं
चाहत के डैनों संग
और डूब जाती हैं जाकर
प्रियतमा के हृदयतल में
अकुलाती, अधीर, अंगड़ाई संग
लौट आती है मुझ तक
बन पुष्प
रंग, गंध संग
और बालकनी भर जाती है
सूर्य रश्मियों से।
धीरेन्द्र सिंह
जब मैं बालकनी में बैठ
पहाड़ों को देखता हूँ
हरे भरे पेड़ों से आती
कोयल की कूक
मन में उठती हुक,
उठती हैं मन से
भावों की अनेक कलियां
कल्पनाओं के तागे में
लड़ियाँ बना उड़ जाती हैं
चाहत के डैनों संग
और डूब जाती हैं जाकर
प्रियतमा के हृदयतल में
अकुलाती, अधीर, अंगड़ाई संग
लौट आती है मुझ तक
बन पुष्प
रंग, गंध संग
और बालकनी भर जाती है
सूर्य रश्मियों से।
धीरेन्द्र सिंह
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