शाम अपनी जुल्फों में
लिए पुष्प सुगंध
हवा को करती शीतल
क्या दुलारती है सबको,
शाम करती है छल
निस दिन अथक
तोड़ती है भावनात्मक बंधन
दे अन्य के भावों का चंदन,
त्याग देती है
पुराने हो चुके को
नए से कर निबंधन,
अब शाम
नहीं रही पहले जैसी
अक्सर बोले
वादे और जिंदगी की
ऐसी-तैसी,
शाम अकुलाई है
नए को पाई
पुराने को ठुकराई है,
नहीं बीतती अब शामें
बहकी-बहकी बातों में
प्रणय अचंभित लड़खड़ाए
स्वार्थ सिद्ध के नातों में।
धीरेन्द्र सिंह
02.07.2021
शाम 06.40
लखनोए।
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