रविवार, 22 सितंबर 2024

बाजू

 उन महकते बाजुओं में आसुओं की नमी

बाजुओं को ना छुएं आंसुओं की हो कमी


बह गया उल्लास के चीत्कार में वह नयन

और मन उदास हो सूखता देखे है उपवन

खुरदुरी कभी लगे सूखी सी यह दिल जमीं

बाजुओं को ना छुएं आंसुओं की हो कमी


श्रम करे, श्रृंगार करे घर का नित उपचार करे

भ्रम कहीं ना कोई रहे बाजुओं से सुधार करे

मुस्कराता घर मिले जिसमें पुलकित हमीं

बाजुओं को ना छुएं आंसुओं में हो कमी


भोर होते चाँद निखरे तक हैं पुरजोशियाँ

रच दिया रख दिया घर लोग की मनमर्जियाँ

और समझें उन बिन कोई लगती ना कमी

बाजुओं को ना छुएं आंसुओं में हो कमी।


धीरेन्द्र सिंह

23,.09.2024

10.28

अनकही

अनकही बात भी करती बतकही

रहने दें तो क्या न होगी कहाकही

उन आँखों के सवाल मचाते धमाल

इन आँखों के जवाब थे कब सही


यूं ना हमको अब आप भरमाइए

मानता हूँ आप जो कहें है सही

आपके नयन करें चतुर्दिक गमन

मनन करते-करते रह गए हैं वहीं


और कितने हैं नयन भरे सवाल

दिल को कब तक रखें प्रश्न बही

अनकही बात रचे कब तक नात

स्पंदित भाव सघन झंकृत हो सही।


धीरेन्द्र सिंह

22.09.2024

17.36



शनिवार, 21 सितंबर 2024

जीवंत रचना

उन्होंने किया अभिव्यक्त

जीवित हूँ मैं

श्वासों की गतिशीलता

मेरे जीवित होने का प्रमाण है,

फूल सी खिलखिलाती हूँ

तुम्हारी और मेरी दृष्टि में

बस इतना अंतर है

मैंने तुम्हारे होने में

सुगंधित खिलखिलाते

फूल रूपी अस्तित्व को

स्वीकारा है

और तुमने

मेरी जली भूनी हड्डियों में;


आश्चर्य हुआ पढ़कर

क्योंकि

यह हमेशा दर्शन, जीवन पर

लिखती हैं

किन्तु आज विषय किस काज,

आंदोलित हो जाता है पुरुष

हो जाती है नारी जब मुखर

तब बौखलाया पुरुष

करता है बात

शालीनता और मर्यादा की

तब मुस्करा उठती है नारी;


उन्होंने आज क्यों लिखा

अस्तित्व और अस्थि

इसी चिंतन में लगा

है नारी समग्र सृष्टि

और पुरुष पर्वत

जिसपर सृष्टि विस्तृत, उन्मुक्त

गा रही है गीत

कोमलतम संवेदनाओं संग

भर पर्वत में तरंग

अपनी पुष्प वाटिकाओं संग

नहीं कह पाता कुछ

कहां पाए पर्वत

नारी मन।


धीरेन्द्र सिंह

21.09.2024

18.07




शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

उदासी

 उदासी

जल में गिरे

उस कंकड़ की तरह है

जिसमें नहीं उठती तरंगे

गिरता है कंकड़ और 

डूब जाता है ढप ध्वनि संग,

उदासी वही ढप है,



डूबता, डूबता, गहरा और गहरा

उदासी की प्रवृत्ति

या कंकड़ की प्रकृति ?

पसरा सुप्त सन्नाटा

बजाते रहता है पार्श्वधुन

उदासी का और

कुछ कहने को उकताता

नयन,


प्रेमिका, पत्नी, परिवार,

पति, प्रेमी हैं प्रमुख,

प शब्द से आरंभ प्रथा भी

है सहेजे उदासी

शेष क्या है बाकी ?,

प्रथाओं की चलन में

यदि भावनाओं का हो दहन

अब कौन करता सहन !

कहता लेंगे खबर खासी

आ जाती तब उदासी,


हाँ है मन उदास

कोई “प” है खास

दिए की भींगी जैसे बाती

ऐसे मिलती है उदासी,

शौर्य लिखूँ, मनमौजी बनूँ

असत्य ना लिखा जाए

उदासी है क्या करूँ ? 

सोचा कविता लिखी जाए।


धीरेन्द्र सिंह

20.09.2024

18.34



गुरुवार, 19 सितंबर 2024

कठिन शब्द

 क्यों लिखी जाती है कविता

कठिन शब्दों से,

सरल शब्द भी तो

कह देते हैं वही बात,

अक्सर उठता रहता है

कठिन शब्दों का संवाद;


कौन लिखता है

कठिन शब्द ?

रचनाकार ?

नहीं, लिखती है कविता

खुद की बहाती भावनाएं

शब्द स्वतः ही आ जाते हैं;


सरल शब्दावली में भी

होती हैं कविताएं, 

जब जैसा भाव

वैसे शब्द फुदक आएं,

कविता खुद को लिखती

कैसे कोई समझाए;


उठती हैं प्रचंड आंधियां

भावनाओं की तब

होती है वैचारिक हलचल

और रचनाकार संतुलन बनाता

करता है अभिव्यक्त

शंकर की जटा की तरह

करता नियंत्रित भावनाओं का

गंगाजल;


विकट होती है परिस्थिति

शब्द संगत चाहे अभिव्यक्ति

ऐसे प्रचंड भाव 

नहीं समेट पाते प्रचलित शब्द

तब कविता चुनती है

कम प्रयुक्त शब्द जैसे

चुनता है योद्धा दिव्यास्त्र

युद्ध की भीषणता में;


मत कहिए कठिन शब्द रचित

कविता का है रचनाकार दोषी,

रचनाकार तो भाव के वेग

और अभिव्यक्ति की आतुरता में

करता है संयमित अभिव्यक्ति 

सर्फिंग करते हुए 

कुशल खिलाड़ी सा।


धीरेन्द्र सिंह

19.09.2024

19.30




मंगलवार, 17 सितंबर 2024

चिरौरियाँ

 तत्व के महत्व की मनधारी मनौतियां

घनत्व में सत्व की रसधारी चिरौरियाँ

 

भावनाएं उन्मुक्तता के दांव चल रहीं

आराधनाएं रिक्तता की छांव तक रहीं

पुष्परंग सुगंध की भर क्यारी पंक्तियां

घनत्व में सत्व की रसधारी चिरौरियाँ

 

अस्तित्व के राग में चाहतों का फाग

व्यक्तित्व के निभाव में नातों की आग

तपिश तप खिल रहा कोई कहे घमौरियां

घनत्व में सत्व की रसधार चिरौरियाँ

 

कथ्य व्यक्त विमुक्त तथ्य कब निर्मुक्त

सुप्त गुप्त संयुक्त तृप्त तुंग तीरमुक्त

गूढ़ता लयबद्ध सुर ताल मिल औलिया

घनत्व में सत्व की रसधार चिरौरियाँ।

 

धीरेन्द्र सिंह

18.09.2024

16.15

सोमवार, 16 सितंबर 2024

विसर्जन

 डेढ़ दिन, पांच दिन, सात और दस दिन

गणेश वंदना विसर्जन परम्परा है प्राचीन

 

शिल्पकार छोटी मूर्तियों में दिखाए कौशल

आस्थाएं घर-घर गूंजी होकर भाव विह्वल

अर्चनाएं संग समर्पित लंबोदर के अधीन

गणेश वंदना विसर्जन परम्परा है प्राचीन

 

लालबाग राजा के अम्बानी हैं शीर्ष लगन

इच्छापूर्ति और मूक दो होते रहते दर्शन

अति प्रचंड जन सैलाब दर्शन प्रयास प्रवीण

गणेश वंदना विसर्जन परम्परा है प्राचीन

 

मुंबई के सागर तट विदाई के भव्य मठ

आज सागर हिलोर हर्षित एकदंत देंगे मथ

भव्यता कहे अगले वर्ष हों जल्दी आसीन

गणेश वंदना विसर्जन परंपरा है प्राचीन।

 

धीरेन्द्र सिंह

17.09.2024

01.05