वाह
आह
ऊँह
नाह
चाह
आह
दाह
बाहं
राह
छाहँ
लांघ
माह
डाह
स्वाह
आह
थाह।
धीरेन्द्र सिंह
14.05.2024
21.12
समर्पित प्रेम में होता यह विषय
विवाद
मीरा सी खुमारी या राधा सा विरह
नाद
अंतस हिलोर मारे अभिलाषाओं की
शुमारी
गहन तरंग उठे असीम चेतना की खुमारी
प्रणय पुष्प सा फले, फूले, महके निर्विवाद
मीरा सी खुमारी या राधा सा विरह
नाद
एक ही धूरी पर प्रणय की अनंत
शाखाएं
कुछ मीरा कहें कुछ संग राधा गुनगुनाएं
क्या प्रेम मात्र एक छात्र एक पाठ संवाद
मीरा सी खुमारी या राधा सा विरह
नाद
किस तरफ शौर्य का गुंजित है अभिमान
बिना साहस प्रेम का हो सके ना
ज्ञान
कान्हा की बांसुरी तो सुदर्शन
चक्र निनाद
मीरा सी खुमारी या राधा सा विरह
नाद।
धीरेन्द्र सिंह
13.05.2024
16.39
प्यार आजन्म, बस एक मधुर गुंजन है
बहुत कम लोगों का, इससे समंजन है
एक छुवन, एक कंपन, एक जुगलबंदी
प्यार की हदबंदी का क्या यही अंजन है
मां, बहन, भ्राता आदि लगें औपचारिकताएं
प्रेमी-प्रेमिका भाव नित्य का अभिनंदन है
हंसी-मजाक में देते निमंत्रण तपाक से
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या कि क्रंदन है
वासना मुखरित हो रही विभिन्न रूप में
क्या प्यार की अनुभूतियों का भंजन है
लग रहा देख सोशल मीडिया का लेखन
प्यार भ्रमित, दूषित का, बढ़ रहा निबंधन है
प्यार पोषित, सिंचित, पल्लवित, पुष्पित
झटपट, चटपट का बढ़ रहा जगवंदन है
मन को छुए बिना तन की ओर धाएं
संवाद साधनों में यह रुचिकर व्यंजन है
प्यार उपेक्षित शालीन सा पड़ा है कहीं
ललक छलक ढलक जैसे कि मंजन है।
धीरेन्द्र सिंह
12.05.2024
17.39
पसीने के बूंदों संग भाल जगमगाता
है
आपके श्रम में प्यार संग यूं
निभाता है
अपने भीतर ही उपजता है अपना प्यार
हृदय के कोने में छुपा रहता है
वह यार
कितना भी व्यस्त रहें बूंद झिलमिलाता
है
आपके श्रम में प्यार संग यूं
निभाता है
स्वेद की बूंद की अपनी विशिष्ट
महत्ता
श्रमिक के सिवा क्या पसीना बिन
इयत्ता
तेज हो सांस तो स्वेद संतुलन
बनाता है
आपके श्रम में प्यार संग यूं
निभाता है
स्वस्थ साफ देह स्वेद इत्र भी
शरमाए
कोई पहना वस्त्र नासिका की भरमाए
स्वेद क्रांति पर पाठ कहां कौन
पढ़ाता है
आपके श्रम में प्यार संग यूं
निभाता है
पसीने से होती है जग में नई क्रांतियां
पसीना में भी श्रृंगार की बसी
भ्रांतियां
पसीने से जुड़ता वह पूर्ण जुड़
जाता है
आपके श्रम में प्यार संग यूं
निभाता है।
धीरेन्द्र सिंह
11.05.2024
12.08
मशवरा न कीजिए तर्क का बाजार है
कौन किसका शुभचिंतक, सोच बेजार है
अपने-अपने अनुभवों से है जनित ज्ञान
हर अनुभव का अपना ही निजी मकान
आत्मस्वर ही श्रेष्ठ जुड़ा स्वतः बेतार है
कौन किसका शुभचिंतक, सोच बेजार है
सत्य परम सत्य उसमें भी न एकरूपता
तथ्य प्रखर तथ्य न्यायालय में है नोचता
परिवेशजनित कथ्य अवधि बाद बेकार है
कौन किसका शुभचिंतक, सोच बेजार है
इसका स्वार्थ उसका स्वार्थ निज परमार्थ
किसका कर्म किसका भाग्य स्वयं चरितार्थ
एक चिन्तनपूर्ण छल मूल लयकार है
कौन किसका शुभचिंतक, सोच बेजार है
ना जी ना इसमें नहीं है नकारात्मकता
आदर्श की पुस्तकों सी अब कहाँ आत्मा
एक जीवन मिश्रित अभिनय से जार है
कौन किसका शुभचिंतक, सोच बेजार है।
धीरेन्द्र सिंह
09.95.2024
19.08
सर्जना प्रातः उल्लसित हो भरे सघन
मेरी रचना पर प्रथम आगमन चितवन
यह भी तो है एक बौद्धिक अनुराग
पहले ही देती कुहुक क्या करें काग
भावनाएं कल्पना संग करें व्योम गमन
मेरी रचना पर प्रथम आगमन चितवन
शब्दों की धड़कन में हैं नई फड़कन
खनक उठते शब्द रसोई के हों बर्तन
सुबह लगे जैसे कर रहा मन भजन
मेरी रचना पर प्रथम आगमन चितवन
सहजता ठीक जीवन करें क्यों दिखावा
मेरी रचनाएं प्रेम का ही हैं बुलावा
प्रत्येक दृष्टि का अभिनव है तकन
मेरी रचना पर प्रथम आगमन चितवन
प्रतिक्रियाएं भी हैं कल्पना की उल्काएं
शब्द भरे प्रोत्साहन लेखन भाव जगाएं
हृदय आदर से करे आप सबका नमन
मेरी रचना पर प्रथम आगमन चितवन।
धीरेन्द्र सिंह
06.04.2024
29.01
घुमड़कर बदरिया आ जा गगन
सही नहीं जाती अब गर्मी सघन
वह भी तो करतीं ना मीठी बतिया
सहज ना रहा जीवन अब शर्तिया
एकाकीपन का और कितना मनन
सही नही जाती अब गर्मी सघन
ना समझो कहूँ यह मौसम मार है
मौसम पर उपकरणों का अख्तियार है
दग्ध सूरज मन में, है बढ़ता तपन
सही नहीं जाती अब गर्मी सघन
साथ रहकर भी साथ जो रहता नहीं
पात्र करीब पर जल है बहता कहीं
प्रीत वैराग्य में नित बढ़ता दहन
सही नहीं जाती अब गर्मी सघन
ओ बदरी बरसकर हरीतिमा जगाओ
खिलना क्या होता मनमलिन को बताओ
भींगे परिवेश में दे दो वही अगन
सही नहीं जाती अब गर्मी सघन।
धीरेन्द्र सिंह