मशवरा न कीजिए तर्क का बाजार है
कौन किसका शुभचिंतक, सोच बेजार है
अपने-अपने अनुभवों से है जनित ज्ञान
हर अनुभव का अपना ही निजी मकान
आत्मस्वर ही श्रेष्ठ जुड़ा स्वतः बेतार है
कौन किसका शुभचिंतक, सोच बेजार है
सत्य परम सत्य उसमें भी न एकरूपता
तथ्य प्रखर तथ्य न्यायालय में है नोचता
परिवेशजनित कथ्य अवधि बाद बेकार है
कौन किसका शुभचिंतक, सोच बेजार है
इसका स्वार्थ उसका स्वार्थ निज परमार्थ
किसका कर्म किसका भाग्य स्वयं चरितार्थ
एक चिन्तनपूर्ण छल मूल लयकार है
कौन किसका शुभचिंतक, सोच बेजार है
ना जी ना इसमें नहीं है नकारात्मकता
आदर्श की पुस्तकों सी अब कहाँ आत्मा
एक जीवन मिश्रित अभिनय से जार है
कौन किसका शुभचिंतक, सोच बेजार है।
धीरेन्द्र सिंह
09.95.2024
19.08
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